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[ १६ ] ४ अशौच-स्वच्छता बाह्य (प्रगट) सप्त दुर्व्यसन (ठगाई, ईर्ष्या, मदान्धता, परपरिणति, परिणमता, विनाकारण संचय, मिथ्यावर्तन, अनाचरण) का त्याग करना और अशुचि पदार्थोसे दूर रहना यह बाह्य शुचि है । और क्रोधादिक छह शत्रुओंको अंतःकरणमें प्रवेश न करने देना सों आंतरिक स्वच्छता है । ५इंद्रियनिग्रह-श्रोत्रेन्द्रिय (कान)के विषयोत्पादक राग रागनीय कथादि सुननेसे रोक कर धर्मकथा श्रवण करनेकी तरफ लगाना, चक्षुरिंद्रिय [ आंख ] को विषयोत्पादक रूप तथा नाटकादि निरीक्षण करनेसे रोक कर साधु सत्पुरुषोंके दर्शनमें लगाना घ्राणेंद्रिय (नाक) को सुगंधित पदार्थोकी ओर न ले जाकर परमात्माको नमन करने में लगाना,रसनेंद्रिय (जिह्वा) को अभक्ष्य भक्षण करने तथा बुरे शब्द बोलने से रोक कर गुणियोंके गुणकीर्तनकी ओर
* श्लोक-अशुचिः करुणाहीनं, अशुचिर्नित्यमैथुनं ।
अशुचिः परद्रव्येषु, परनिंदाशुचिर्भवेत् ॥ १ ॥