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________________ द्वितीयः सर्गः ५५ जब महाव्रत ही प्रायः समाप्त हो चुके हों तो फिर उस समय अणुव्रतों का तो कहना ही क्या ! जब समुद्र ही अपनी मर्यादा का अतिक्रमण कर देता है तो फिर विश्व व्यवस्था कैसे रह सकती है ? तब कौन तारने वाला और कौन पार लगाने वाला हो सकता है ? ७१. अकृत्रिमत्वं क्षुभितं विलुप्तं, वृत्तं च यत् कृत्रिमताधिराज्यम् । आचार आचर्य गति विदेहे, प्राप्तः प्रभूणां शरणं शुभाय ॥ ऐसी विषम परिस्थिति में वास्तविकता तो कहीं दूर चली गई और कृत्रिमता का ही चारों ओर बोलबाला होने लगा। ऐसी स्थिति में मानो वह बेचारा निराश्रित 'आचार' अपना सा मुंह लेकर महाविदेह क्षेत्र में श्री सीमंधर प्रभु की शरण में चला गया। ७२. स्याद् वा यदा कोऽपि यथार्थवादी, क: श्रावकः स्याद् यदि कोऽनुमन्ता । कोलाहले काककुलोद्भवेऽने, क: कोकिलोपज्ञकलं कलेत ।। यदि कोई यथार्थवादी था भी तो कौन उसको सुनने वाला और कौन उसको मानने वाला था ? कौओं के कोलाहल के समक्ष कौन कोयल की भांति मधुर आलाप करेगा ? ७३. बध्योऽनवद्योऽपि च सत्यवक्ता, प्रोत्तार्यमाणो ननु मृत्युघट्टे । विडम्बनीयो बहुभिः प्रकारैर्यः कोऽपि तस्माच्छितमौनभावः ।। उस समय यदि कोई सत्यवक्ता अपनी सच्ची बात प्रकट करता तो वह दण्डित होता या मृत्यु के घाट भी उतार दिया जाता था। उसकी अनेक प्रकार से विडंबना की जाती थी। ऐसी स्थिति में सत्यवक्ता के लिए मौन रहने के अतिरिक्त और कोई दूसरा मार्ग नहीं था। ७४. शैथिल्यशीला यतयः समस्ताः, श्राद्धास्तथोत्साहयितुं प्रसक्ताः । 'चौररमा श्वान' इतस्ततस्ते, संस्तारकः केऽपि मृताः सुसन्तः॥ तात्कालिक साधु-संस्था प्रायः शिथिलाचार से व्याप्त हो रही थी तथा 'चोर कुत्ते के मिल जाने' की भांति ही अन्ध श्रद्धालु श्रावक लोग उन शिथिलाचारी साधुओं के शैथिल्य को प्रोत्साहन दे रहे थे। ऐसी स्थिति में शुद्ध साधना वाले संयमी साधुओं ने तो अनशन आदि तपस्या के द्वारा स्वर्लोक में प्रस्थान कर दिया था। १. अमा - साथ (साकं सत्रा समं सार्द्धममा सह-अभि० ६।१६३)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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