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________________ श्रीभिझुमहाकाव्यम् ५. कष्टानि सोढानि मया तदानी, दृष्टा न मुग्धे ! न कदापि याता । अनर्गला धौतमुखा वराकी, निर्वासितुं मां कथमीहमाना ॥ 'अयि मुग्धे ! मैंने इसके पोषण में बहुत कष्ट सहे हैं। उस वेला में न तो मैंने तुझे कभी देखा और न तू कभी आई। आज तू अनर्गल बोल रही है। अयि पगली ! अब तू मुझे यहां से निकालने के लिए मुंह धोकर क्यों आई है ?' ६. संवद्धिकाऽहं विनिपातुका त्वं, विकृत्पराऽहं सविकारिका त्वम् । क्वाहञ्च राका रजनी सचन्द्रा, क्व त्वं कुहूरन्तरकृष्णवर्णा ॥ _ 'देख, कहां तो मैं सर्वाङ्गीण वृद्धि करने वाली और कहां तू पतन की ओर ले जाने वाली ! कहां तो मैं विकार से विमुख और कहां तू विकार पैदा करने वाली ! कहां मैं पूर्णिमा की चांदनी रात और कहां तू अमावस्या की अंधेरी रात ।' ७. बलाधिपत्याय विवर्द्धमानां, दत्वा चपेटां सरलां विधित्सुः । ओजस्विनी कि सहते मृगेन्द्रीं, मृगी स्वपोतं यदपाहरन्तीम् ॥ 'और यदि तु बलात्कार से ऐसा करना चाहेगी तो मैं चांटा मारकर तुझे सीधी बना दूंगी। क्या ओजस्विनी मृगी अपने शिशु का अपहरण करने वाली सिंहनी को सहन कर सकती है ?' ८. निर्भर्त्सनाभिनं विवर्णवक्त्रा, प्रत्युत्तरन्ती तरुणत्वता सा । बाल्येन्दिरे ! मुञ्च रुषं शृणुस्व, विकत्थनेनाऽपि न कापि सिद्धिः॥ ___ उस बाल रमा की ऐसी फटकार सुनकर भी उस यौवनश्री ने अपना मुंह नहीं बिगाड़ा। वह मधुर वाणी में बोली- 'अयि बालरमे ! रोष को छोड़ और ध्यान से सुन । केवल मिथ्या वाग्-जाल से कुछ भी सिद्ध होने वाला नहीं है।' ९. उक्तं न युक्तं च कृतं त्वया यत्, कि सौष्ठवं केवलमोहपुष्टिः । अहं तु विश्वोद्धरणाय यस्मादागन्तुमिच्छामि ततः प्रसीद ॥ १. राका-पूर्ण चांद वाली पूर्णिमा (सा राका पूर्णे निशाकरे--अभि० २।६३) २. कुहूः-वह अमावस्या जिसमें चांद के बिलकुल दर्शन न हो (अभि० २०६५) ३. तरुणत्वेन सहिता तरुणत्वता ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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