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________________ प्रथमः सर्गः ८४. मध्यालिशालिपटुपाटल'पुष्परम्ये, यस्याऽऽयते द्विनयने विमले विशाले । सर्वान्धकारमपहर्तुमिव प्रसारितेजस्विपुञ्जकलिते स्थिरकृष्णपक्ष्मे ॥ स्थिर और काली भौंहों वाले, समस्त अंधकार को दूर करने में समर्थ ऐसे तेजपुंज वाले, निर्मल, विशाल और आयत नेत्र वैसे ही सुशोभित हो रहे थे जैसे कि मध्यस्थित भ्रमर से श्वेत-रक्त पुष्प । ८५. पूर्वाद्रिकल्पमिदमाननमुच्चमस्य, संलक्ष्य किं नयनयुग्ममिषाद् रवीन्दू । अभ्युद्गतौ युगपदेव युगप्रकाशावुष्णेतरावनिशमादधतौ हिताय । इसके ऊंचे मुंह को देख निषधाचल के भ्रम से क्या सूर्य और चन्द्रमा दोनों ही दो आंखों के मिष से यहां पर उदित हुए हैं, जो लोक-हितार्थ शीत और उष्ण-दोनों ही प्रकार के प्रकाश को एक साथ सदा करते रहते ८६. दीर्घायुरामयविजितमुग्रजैत्रं, व्यङ्क्तुं लसल्लुलितलौलितदिव्यकर्णी । कर्णी तथा भवितुमक्षियुगं यदन्ते, संसेव्यमानमनिशं प्रतिभातमेव ॥ शिशु के लटकते हुए चमकदार तथा लंबी लोलकी वाले दोनों ही दिव्य कान उसके दीर्घायु, नीरोग और महान् विजेता होने की सूचना देने वाले थे। आंखों ने भी कानों की तरह महान् बनने के लिए ही मानों उनके निकट पहुंच उनकी अनवरत सेवा प्रारम्भ कर दी। (इससे आंखों की लम्बाई व सुन्दरता सिद्ध होती है।) ८७. फुल्लौ कपोलफलको निखिलोच्चभाबा वन्तःस्फरन्निखिलविश्वविनोदसारौ । यद्वा श्रुताश्रितसुरी' श्रमिता द्विरूपा, वस्तुं बहियंरचयन् मुकुरासने द्वे ॥ १. पाटल-श्वेत-मिश्रित लाल (श्वेत रक्तस्तु पाटल:-अभि० ६।३१) २. श्रुताश्रितसुरी-सरस्वती
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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