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________________ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् लाखों प्रतिपक्षियों के होते हए भी मैं निर्भीकता पूर्वक समस्त संसार के सामने खुली छाती खड़ा रहूंगा, क्या ऐसी भावी सूचना देने के लिए ही वह शिशु पालने में भी सतत उत्तान-ऊपर पैर कर सोया रहता था। ६६ साक्षात् स्तनन्धयशिशुः शिशुशेखरोऽपि, स्वाङ्गुष्ठपानमहिमानविधानतोऽयम् । भावार्हतोऽनुसरणं सरणं करिष्ये, एवं निदर्शयति दर्शनदर्शकाणाम् ।। शिशुओं में श्रेष्ठ वह दूधमुंहा बालक भी अपने अंगूठे को चूसने की क्रिया से साक्षात् उसकी महिमा को द्योतित कर रहा था, क्योंकि सभी तीर्थक र बाल्यावस्था में अंगूठे को ही चूसते हैं, स्तनपान नहीं करते । देखने वाले दर्शकों को वह यह बता रहा था कि भविष्य में मैं भाव-तीर्थंकरों का अनुसरण करूंगा। ६७. रंरम्यमाण इह कि लुठनानुलोठः, स्वीयं वदन् समयसिन्धुनिमन्थनत्वम् । अङ्कान्तरग्रहपुरः स्फुरदूर्वबाहुरुच्चैर्गमोऽहमिति किं गमयन् बभौ सः ॥ ऐसी तर्कणा हो रही थी कि क्या यह बालक भूमि पर बार-बार लुठता हुआ, खेलता हुआ यह संकेत दे रहा है कि भविष्य में वह जैन आगमसिन्धु का इसी प्रकार मंथन करेगा ? एक गोद से दूसरी गोद में जाता हुआ यह बालक अपनी भुजाओं को ऊंची फैलाकर 'मैं ऊंचा ही जाने वाला हूं' क्या ऐसा द्योतित तो नहीं कर रहा है ? ६८. यो बद्धमुष्टिरपि सन् कृपणत्वहारी, यो बद्धमुष्टिरपि सन् प्रणयप्रचारी। यो बद्धमुष्टिरपि सन् हृदयापहारी, यो बद्धमुष्टिरपि सन् भुवनोपकारी॥ ___ संस्कृत भाषा में बद्धमुष्टि शब्द का प्रयोग कृपण, निष्प्रेम, अमनमोहक एवं अपकारक आदि अर्थों में होता है। पर यह शिशु (शैशवकाल में) बद्धमुष्टि होते हुए भी कृपणता का नाश करने वाला, प्रेम का प्रसार करने वाला हृदय को खींचने वाला एवं विश्व का उपकार करने वाला है। इसलिए 'बद्धमुष्टि' शब्द के सारे अर्थ इसने बदल डाले ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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