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________________ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् यह दुःषम पञ्चम आरा है । इस समय जिनराज तीर्थंकर तो हो नहीं सकते, पर यह बालक उनका प्रतिरूप ही होगा, ऐसा सोचकर ही मानो सबको इसकी सूचना देने के लिए सारे के सारे मांगलिक वाद्य तब एक साथ बजने लगे। ५९. कौसुम्भकौकुममयाद्भुतवर्णवेषाः, सालङ्कृता जिनजना विव देवदेव्यः । सन्मानयन्ति महिला अनिलाङ्गनृत्याः, सौभागिनी त्वमसि भाग्यवतीह दीपे !॥ उस समय कुसुम्भ एवं कुंकुम वर्ण वाले वेष को धाकर करने वाली महिलाएं अलंकृत होकर वहां पर वैसे ही आयीं जैसे तीर्थंकर के जन्मोत्सव पर देवियां आती हैं । वे पवन की तरह अपने अंग को नचाने वाली महिलाएं दीपां को सम्मानित करती हुई यों बोल पड़ी-दीपां ! 'तू ही इस दुनिया में भाग्यवती है, सौभागिनी है।' , ६०. सूनोमनोरममनोजनमोदकस्य, संश्रुत्य जन्म जनितान्तरहृष्टपुष्टः । पौरैस्तमीक्षितुमतीवसमुत्सुकस्तैहवें भृतं-स्तुतिमितो धनिबल्लुशाहः ॥ ___ सुहृद् जनों को आह्लादित करने वाले सुपुत्र का जन्म सुनकर आंतरिक उल्लास से उल्लसित पुरवासी बालक को देखने के लिए अत्यन्त लालायित हो उठे। उन प्रेक्षकों से वह घर ठसाठस भर गया। लोगों ने ऐसे पुत्ररत्न की प्राप्ति पर धनी सेठ बल्लुशाह की भूरि-भूरि प्रशंसा की। ६१. आकषिकाऽऽकृतिधरं सुमनोमनोज्ञं श्रीनेमिनाथमिव मेचकरत्नवर्णम् । माः कदापि ततृपर्न तमीक्षमाणा, मन्ये स्थिता अनिमिषा विवशाः प्रयातुम् ।। इस आकर्षक आकृति बाले, सहृदय व्यक्तियों के लिए मनोज्ञ, भगवान् नेमिनाथ की तरह मेचक मणि के समान श्याम वर्ण वाले बालक को देखते हुए भी लोग तृप्त नहीं हुए । अतः वे उसे अनिमिष नयनों से निहारते हुए मानो अनिमिष (देवरूप) ही बन गये और वहां से चले जाने में विवश-से हो गए। १. जनिः-जन्म (जननं जनिरुद्भवः -- अभि० ६३) .
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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