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________________ श्रीभिझमहाकाव्यम् ३८. तस्माच्चमत्कृतिकरादपि जातमात्रात्, प्रोत्फुल्लिताः परिकरा निकरा नराणाम् । माता तु चिन्तयति तं नयननिभाल्य, श्लाघ्याऽहमेव भुवनान्तरभाग्यभाजाम् ॥ इस प्रकार उस चमत्कारी शिशु के जन्म मात्र से ही पारिवारिक जन तथा अन्यान्य ग्रामवासी बहुत प्रसन्न हुए। मां उस शिशु को देखकर सोचने लगी, विश्व के समस्त पुण्यवान् व्यक्तियों में मैं ही श्लाघ्य हूं, प्रशंसनीय ३९. पश्चादपि प्रतिभया नवया नृलोके, स्थातुं न दास्यति कदापि कुतोऽप्ययं माम् । अन्धान्धकारनिकरः प्रखरोऽन्तरीयः, प्रागेव हन्त ! निसृतः प्रपलायमानः॥ यह नवजात शिशु अपनी नई प्रतिभा और मेधा से मुझे इस मनुष्यलोक में कहीं भी और कभी भी रहने तो देगा ही नहीं, यह सोचकर प्रसूतिगृह का वह सघन अंधकार पहले ही पलायन कर गया, नष्ट हो गया । ४०. व्युत्पन्नबुद्धिरयमाहतशास्त्रबुद्धया, मिथ्यादृशां मुकुलितानि मुखाम्बुजानि । अस्मादृशां विकसितानि विधास्यति च, नार्यो हि न प्रमुदिता मुदिता दिशोऽपि ॥ व्युत्पन्नमति वाला यह बालक अर्हत् शास्त्रों के माध्यम से मिथ्यादृष्टियों के मुखकमल को संकुचित करेगा और हमारे मुख कमल को विकसित करेगा, यह सोचकर नारी समूह ही प्रमुदित नहीं हुआ किन्तु सारी दिशाएं भी प्रफुल्लित हो गईं। ४१. भस्मग्रहादिह कलौ हतधूमकेतो निर्नायकाऽहमधुनाऽधिकृता कुलिङ्गः। भाविन्यऽनेन सुचिरं विशदेश्वरीति, जैनेन्द्रशासनरमा नरिनृत्यमाना । 'इस कलि काल में भस्मग्रह तथा धूमकेतु से संत्रस्त मुझ अनाथ पर आज कुवेशधारियों ने अधिकार कर लिया है, पर अब मैं इस बालक से पवित्रता को संजोकर सनाथ बनूंगी'-ऐसा सोचकर जैन शासन की लक्ष्मी नाचने लगी, अत्यन्त प्रफुल्लित हो गई।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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