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________________ १२ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ३१. तेष्वेक आहितधनो वरबल्लुशाहो, जातिविभाति बत यस्य सुशौकलेचा । श्रीवीतरागपदपद्मनिविष्टभक्ति- . र्यस्याशय: कुहनतादिभिरिङ्गितो न ॥ उन ओसवंशीय जैनों में बल्लुशाह नामक एक श्रेष्ठी था। उसका गोत्र था सुकलेचा । वह वीतराग प्रभु के चरणों का भक्त था । उसके विचार ईर्ष्या आदि दोषों से मुक्त थे । ३२. दीपाभिधा लवणिमाञ्चितसुन्दराङ्गी, तस्य प्रिया प्रणयिनी कुलजा सुशीला । जाता विलोक्य किमु सार्थवसुन्धरां तां, धूल्यश्मकर्करमयी बता रत्नगर्भा । उसकी प्रिय पत्नी का नाम दीपां था। वह लावण्य और सौन्दर्य से उपपेत, श्रेष्ठकुल में उत्पन्न और सुशील थी । मन में विकल्प उठता है कि क्या ऐसी सुन्दर वसुन्धरा (दीपां) को देखकर यह रत्नगर्भा वसुन्धरा (पृथ्वी) केवल धूल, पत्थर और कंकरमयी तो नहीं बन गई ? ३३. दाम्पत्यजीवनविलासविलासिनी सा, निद्रां गता पतिरता शयने शयाना । स्वप्ने मृगेन्द्रमवलोक्य दधाति गर्भ, . पृथ्वी यथा नवयुगे निपुणं निधानम् ॥ दाम्पत्य जीवन का सुखोपभोग करती हुई दीपां, अपने शयनकक्ष में पति के साथ सो रही थी। उस समय सिंह का स्वप्न देखकर उसने वैसे ही गर्भ धारण किया जैसे नए युग में पृथ्वी निधान को निपुणता से धारण करती ३४. धामकधाम रविबिम्बमिवाऽऽपगायां, दीपा प्रदीप्तवदना गरभं दधाना। तस्य प्रभाववशतो रुचिराशया सा, कुक्षौ सुपुत्रचरणा ह्य पलक्षणीयाः ॥ १. कुहनता- ईर्ष्या का भाव (ईर्ष्यालुः कुहनः- अभि० ३।५५) २. गरमा-गर्भ (गर्भस्तु गरभो भ्रूणो'–अभि० ३।३०४)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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