________________
दशमः सर्गः
३१९ मुनि भिक्षु राजनगर चातुर्मास करने के लिए प्रस्थित हुए। वर्षा की अधिकता के कारण सारे मार्ग अवरुद्ध हो गए। वे वहां नहीं पहुंच सके । वे केलवा में ही रह गए। विरोधी लोगों ने उनके विरुद्ध सारे गांव में द्वेष का वातावरण पहले से ही निर्मित कर रखा था। उन्हें चातुर्मास के लिए कोई भी स्थान देने के लिए तैयार नहीं हुआ। बडी समस्या पैदा हो गई। ४८. भैरोजीः शुभशोभजीजनयिता तद्दत्तशिष्ट्या द्रुतं,
बाह्ये तन्नगराद्दिनेपि धवले पुंसां भयोत्पादिनी। श्रीचन्द्रप्रभमन्दिरस्य निकटे चान्धेरिका ह्यौरिका', तत्र स्थाद्विमलाशयो जितभयो मोक्षकबद्धस्पृहः ॥
श्रावक शोभजी के पिता भैरांजी ने आचार्य भिक्षु को एक स्थान की ओर निर्देश दिया। वह स्थान नगर के बाह्य भाग में स्थित श्री चन्द्रप्रभु स्वामी के मन्दिर के निकट था। उसमें एक कोठरी थी, जिसको 'अंधेरी ओरी' कहा जाता था। वह स्थान दिन में भी लोगों को भयावह लगता था। मोक्षाभिमुख और अभय की साधना में रत भिक्षु प्रसन्न मन से वहां स्थित हो गए।
४९. श्रीमद्वीरजिनेश्वरस्य विलसन्निर्वाणराशौ यदा,
कल्पोक्तेद्विसहस्रवार्षिकमितो भस्मग्रहः संस्थितः। तस्माच्छीपरमेश्वरश्रमणसन्निर्ग्रन्थवाचंयमपूजा भाविनि भावतोऽत्र समये प्रोदीय वोदीय च ॥
कल्पसूत्र के अनुसार भगवान के निर्वाणराशि पर दो हजार वर्ष का भस्मग्रह लगा, इसलिए भविष्य में इस भरतक्षेत्र में भगवान के श्रमण निर्ग्रन्थों की उदय-उदय भाव पूजा होगी, कभी पूजा होगी और कभी नहीं।
५०. निर्वाणाद् द्विशतकपूर्वनवति प्रादिर्वरारूपणा ।
तत्पश्चात् भभ राग भूमि शरदोऽशुद्धा च बाहुल्यतः। अर्थात् तद्वयमेलनान् नभमभक्षोणी'समासम्भवो । लग्नस्तत्र च धूमकेतुरनला नेहो गुणा ब्दै मितः॥
भगवान के निर्वाण से २९१ वर्ष पर्यन्त शुद्ध प्ररूपणा रही। इसके बाद १६९९ वर्षों तक बहुलता से अशुद्ध प्ररूपणा रही। इस प्रकार दोनों के संकलन से (१६९९+२९१) १९९० वर्ष हुए। उस समय ३३३ वर्षों का धूमकेतु ग्रह लगा। १. अंधेरी ओरी। २. ईङ्च गतौ इति धातोः रूपम् ।