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________________ ૨૬૪ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् उनकी वैसी प्रवृत्ति को देखकर मुनि भिक्षु ने मन ही मन सोचा, गुरु लौकिक आसक्ति में रक्त हैं, इसलिए वे किसी भी प्रकार से समझाए नहीं जा सकेंगे। इसलिए अब मुझे अपने आत्मोद्धार के लिए सुपथ स्वीकार कर लेना चाहिए । मोक्षाभिलाषी पुरुष अपने हित को साधता है। वह किसी दूसरे के पीछे डूबता नहीं। ६.८. तादृरगच्छै किमिह विलसद्वेश्मवासानुरूप नामान्तर्य क्षितिपधनिकौपम्य गच्छाधिपः किम् । किं यत्सामाजिकनपनयाभासतद्धर्मनीत्या, मिथ्याचारैः किमुत जनतावञ्चनाजालकल्पः॥ _ भिक्षु ने सोचा, वैसे गच्छों से क्या जो गृहस्थाश्रम के अनुरूप हों, वैसे गच्छपतियों (आचार्यों) से क्या जो नामान्तर से राजा एवं धनिक की उपमा धारण करने वाले हों, वैसी धर्मनीति से क्या जो सामाजिक और . राजनीति के सदृश हो, तथा उस मिथ्या आचार से क्या जो जनता को फंसाने के लिए जाल सदृश हो? . ६९. कि तादक्षाधिकृतगुरुणा यः स्वयं वीतरागां स्तन्मर्यादाः समयसुहिता लङ्घ येत् कालकूटात् । न स्वच्छन्दो गुरुरपि भवेद् गवितो गौरवेण, तस्याप्यास्ते शिरसि समयः प्राग्गुरुर्वा ससीमः ॥ वैसे गुरु से भी क्या जो वीतराग तथा उनके द्वारा निर्दिष्ट आगमिक मर्यादाओं को कालकूट विष समझ कर उनका उल्लंघन करे। गुरु भी अपने अहंकार से ग्रस्त होकर स्वच्छंद न बन जाएं, मनमानी न करने लगें, क्योंकि उनके शिर पर भी सिद्धान्तों और पूर्व गुरुओं की मर्यादाएं हैं। ७०. सन्तः प्रायः शिथिलशिथिलाचारविस्तारवीरा, - अग्रेग्रे स्वस्वसुखसुविधासौख्यशीलत्वलीनाः । । स्वस्वापेक्षागमविधिपरावर्तने व्यग्रचित्ताः, . साहाय्यस्यावितथसुपथे काऽभिलाषास्ति तेभ्यः॥ उस समय आचार्य के साथ जो सन्त थे वे प्राव: शिथिल और शिथिल आचार को विस्तार देने वाले ही थे । वे आगे से आगे अपनीअपनी सुख-सुविधा और साता में लीन थे। इतना ही नहीं, वे अपनी-अपनी अपेक्षा से आगम-विधियों के परिवर्तन में व्यग्रचित्त थे। ऐसे मुनियों से सन्मार्ग में सहायता पाने की अभिलाषा ही क्या की जा सकती है ?
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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