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________________ अष्टमः सर्गः २२९ आकर निपुणता से विषय को प्रस्तुत कर, विनयपूर्वक आलाप-संलाप कर उनके हृदय में तात्त्विक श्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयास करूंगा। फिर मैं आगम की युक्तियों से गुरुदेव को अर्हत् मार्ग पर लाने की चेष्टा करूंगा।' (इस प्रकार मुनि वीरभाणजी को समझाकर मुनि भिक्षु दूसरे मार्ग से सोजत की ओर चल पडे ।) १२. स वीरभाणो हि तथात्वयोगतो, बुभूषयामास पुरा पुरं तकम् । . उपेत्य तत्राध्युषितं निजं गुरुं, विधेर्ववन्दे स्वपरम्परागतात् ॥ भावी के योग से वीरभाणजी मुनि भिक्षु से पूर्व ही सोजत शहर में पहुंच गये जहां गुरु रघुनाथजी विराज रहे थे। उन्होंने अपनी परम्परागत विधि से गुरु के चरणों में वन्दना की। १३. तेनाऽपि पित्रेव यथेप्सिताशया, शिरः शयोत्सर्जनतादि'कर्मभिः। सुखं समापृच्छय नरेन्द्रपूर्नृणामपृच्छि वृत्तान्तमसौ सचेतसा ॥ ___ जैसे किसी आशा से प्रेरित होकर पिता अपने पुत्र के शिर पर हाथ रखता है वैसे ही गुरु रघुनाथजी ने वीरभाणजी आदि संतों के शिर पर हाथ रखा, सुख-पृच्छा की और राजनगर के श्रावकों का वृत्तान्त पूछा। १४. किमङ्ग ! निष्काशितवानगारिणां, प्रविष्टशङ्काविषशङ कुसन्निभाः। न किं निरस्ता यदि वात्र यद् भवेत्, समादिश त्वं मम शिष्यसत्तम! 'हे प्रिय वत्स ! क्या राजनगरवासी श्रावकों के हृदय में प्रविष्ट जहरीली कीलों के समान जो. शंकाएं थीं, उन शंकाओं का निराकरण कर दिया ? इस विषय में जो कुछ हुआ हो वह स्पष्ट रूप से बताओ। १५. गुरुस्तदेवं परिपृच्छच संस्थितो, दृशा तदीयोत्तरसम्प्रतीक्षकः। __ नवैः समाचारवरैर्ध्वनिग्रहौ, न कोऽत्र सम्पावयितुं समुत्सुकः॥ आचार्य रघुनाथजी मुनि वीरभाणजी को.ऐसा पूछ कर मौन हो गये और उत्तर की प्रतीक्षा करते हुए उनकी आंखों के सामने देखने लगे। नये समाचारों से अपने कानों को पवित्र करने के लिए कौन समुत्सुक नहीं.. होगा? १. शय:-हाथ (पञ्चशाखः शयः शम:--अभिा० ३।२५५)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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