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________________ सप्तमः सर्गः २२३ १०५. तरितुं तारणचिन्होपेतान्, मत्वा धृतवन्तो वयमेतान् । विदितास्तद्गुणशून्याः शास्त्रस्तस्मादेते हेया गात्रैः॥ 'मुने ! हमने भावसागर को तैरने के लिए ही तो इन मुनियों को संसार सागर से पार लगाने वाले जानकर स्वीकार किया है। हमने शास्त्रों के अध्ययन से जान लिया है कि ये मुनि-गुणों से शून्य हैं। अतः अब हमें इनको छोड देना चाहिए।' १०६. सहयातानां दृष्ट्वा दाढय, हार्दिकवृत्त्या धैर्यपराढयम् । भिक्षुर्मुमुदेऽद्यावधि धरणौ, सन्ति श्रेष्ठाः सज्जनसरणौ ॥ मुनि भिक्षु अपने सहवर्ती मुनियों की दृढ़ता, हार्दिक इच्छा तथा धैर्य की उत्कर्षता को देखकर बहुत हर्षित हुए। उन्होंने सोचा, आज भी धरती पर सज्जनों की श्रेणी में आने वाले श्रेष्ठ पुरुष हैं। १०७. किन्तु तदानीं दीर्घ दिदृक्षुः, परमानन्दपरार्थविवक्षुः । बहुजनहितमवलम्ब्य मुमुक्षुः, समयापेक्षक आसीद् भिक्षुः॥ किन्तु उस समय परम आनन्द (मोक्ष) और परार्थ को कहने-सोचने वाले दीर्घदृष्टि मुमुक्षु भिक्षु बहुजनहित की बात पर ध्यान देकर उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। १०८. आशातीतैः सफलविचारः, श्रेष्ठश्रेष्ठोदकर्कासारैः। यत्रार्हन्त्यमतस्य समृद्धा, पुनरुद्धारे सीमाबद्धा ॥ आशातीत सफल विचारों से तथा भविष्य में अच्छे से अच्छे फल के आसारों से मुनि भिक्षु ने अर्हत् मत के पुनरुत्थान के लिए समृद्धिशाली मजबूत सीमा बांध दी। १०९. राजनगरनगरेषु गरिष्ठः, श्रीमद्भिक्षोभिक्षोः प्रष्ठः । अन्तर्योतिर्वलितोल्लासः, प्रोत्तरितोऽयं चातुर्मासः॥ मुनि भिक्षु का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण, प्रधान और अन्तर् ज्योति की जगमगाहट से प्रज्वलित राजनगर का यह सातवां चातुर्मास सानन्द संपन्न हुआ। श्रीनाभेयजिनेन्द्रकारमकरोद् धर्मप्रतिष्ठां पुनर् ___ यः सत्याग्रहणाग्रही सहनयैराचार्य भिक्षुर्महान् । तत्सिद्धान्तरतेन चाररचिते श्रीनत्थमल्लर्षिणा श्रीमभिक्षुमुनीश्वरस्य चरिते सर्गोऽभवत् सप्तमः ॥ श्रीनत्थमल्लर्षिणा विरचिते श्रीभिक्षुमहाकाव्ये । सत्याभिव्यक्तिप्रतिज्ञानामा सप्तमः सर्गः ॥
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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