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सप्तमः सर्गः
१. अथ विवरीषुरिदानी श्रेष्ठ, सप्तममस्य घनागममिष्टम् ।।
तत्र पुनः समयप्रणिधानं, लब्धं तत्त्वं सत्त्वनिधानम् ॥ . अब मैं उन मुनि का श्रेष्ठ और इष्ट सातवें चातुर्मास का वर्णन. करना चाहता हूं। वहां मुनिश्री ने आगमों का गहरा अध्ययन किया और सारभूत तत्त्व को प्राप्त किया।
२. सङ्गीणे तस्मिन् कृतकृत्या, रजनी हृष्टवती समवृत्त्या । मित्रं प्रेषयितुं प्रतिवृत्त्या, क्षेत्रविदेहे किमिता भक्त्या ॥
ज्वरग्रस्त भिक्षु को प्रतिज्ञाबद्ध देखकर वह रजनी कृतकृत्य और हृष्ट-तुष्ट हो गई। सूर्य को यहां का वृत्तान्त समवृत्ति से सुनाने तथा उसको यहां भेजने के लिए मानो वह रजनी महाविदेह क्षेत्र की ओर चली गई।
। ३. पद्मबन्धुना कामं काम, महाविदेहे भ्रामं भ्रामम् ।
सीमन्धरमुखसमपरमेशा, बहु दृष्टाः पृष्टाश्च गणेशाः॥
४. विज्ञप्ता इह. भरतक्षेत्रे, महामृषापरिलोपितनेत्रे। . . क्रियतां क्रियतां तत्र विकाशः, प्रभवेन्नो चेज्जिनमतनाशः॥
(युग्मम्) . .' . . सूर्य ने महाविदेह क्षेत्र में भ्रमण कर सीमन्धर आदि तीर्थंकरों तथा गणधरों को देख उन्हें पूछा-'भंते ! अभी भरतक्षेत्र के लोगों के नयन महामृषा से अंधे हो गए हैं । आप वहां सत्य का प्रकाश करें, जिससे कि वहां जिनेश्वर देव के मत का विनाश न हो।'
.५. किन्त्वायन्ति न ते सन्तुष्टा, निजनिजसाधनपोषणपुष्टाः। .. अर्हन्तो भगवन्तः सन्तः, सन्ति सदा ते शसधनवन्तः॥
सूर्य ने सोचा-वे अरिहंत, गणधर आदि अपनी-अपनी साधना के पोषण से पुष्ट तथा संतुष्ट हैं। वे सदा उपशान्त रहते हैं। वे भरतक्षेत्र में नहीं आते।