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षष्ठः सर्गः
७८. जिनराजगिरो विपरीत्य कियत्, कलुषं कलुषं कषितं च मया । अधुना यदि मे मरणं प्रभवेदधमां कियतीं गतिमेमि तदा ॥
मैंने भगवद् वाणी को उलट कर — उसके विपरीत प्ररूपणा कर कितने पापों को अर्जित किया है ? यदि इस समय मेरी मृत्यु हो जाए तो मैं कौनसी अधम गति में जाऊंगा ?
७९. कुगते : कुहरे पततो यदयं, न कुगुरुर्न कदापि सहायवरः ।
इदमंहस उत्सुकतां कलयन्नविता पविता द्रविता खलु कः ॥
कुगति के गहरे गर्त में गिरते हुए मुझे बचाने के लिए कुगुरु मेरे सहायक नहीं बनेंगे और उत्सुकता पूर्वक किये गये इन पापों से कौन मेरी रक्षा करेगा ? कौन मुझे पवित्र करेगा ?
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निजवञ्चनकल्मषतोऽयमृषिर्बहुकम्पित इव बहुकम्पगतः । प्रतिकूलसमीरसमीरणतः, परिपेलववेलसमुद्र इव ॥
वे महामुनि स्व- वञ्चना के पाप से कंपन रोगी की भांति वैसे ही प्रकंपित हो गए जैसे प्रतिकूल पवन से प्रेरित चंचल लहरों से समुद्र प्रकंपित हो जाता है ।
८१. तदवस्थमहाशय भिक्षुमुनेः, परमात्मवलक्षविलक्षमतेः ।
पुरुष पुरुषोत्तमता प्रगति: परिकाशयति स्म विकासरतिः ॥
उस समय उन महान् विचारक, परम आत्मा की भांति अवदात और विलक्षण मति वाले भिक्षु स्वामी की आत्मा में प्रमोदजनक पुरुषोत्तमता की प्रगति जगमगा उठी ।
८२. स्वपरप्रवितारणपापभृतनिजचेतनपोतमहोदरतः । परिणामपवित्रितभावनया, क्षिपते समुदित्य मुहुस्तदरम् ॥
उस समय वे महामुनि स्व-पर वञ्चना के पातक से भरे हुए अपनी चेतना की नौका के महान् उदर को रिक्त करने के लिए उस वञ्चना के पातक को एकत्रित कर पवित्र परिणाम रूप भावना से उसे शीघ्र ही बाहिर फेंकने में संलग्न हो गए ।
८३. अमुना विधिना समये समये, सुकृतैकविचिन्तन चिन्तनकृत् । गुरुराचितः प्रतिमार्गमितोप्यह ! साधुपथं पुनरागतवान् ॥
इस प्रकार समय-समय पर सुकृत का चिन्तन करते हुए वे महामुनि, जो गुरु के मोह से उन्मार्गगामी बने हुए थे, पुनः सत्पथ में प्रतिष्ठित हो
गए ।