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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ६२. विदितात्महृदा जनतावचनमतिमात्रयथातथमार्यमयम् । न तथापि मया सरलाशयत, उररीकृतमेव मनागपि हा !॥
(युग्मम्) परंतु मैं अपने गुरु के व्यामोह से मूढ और भ्रांत होकर, बहुमान और सुनाम के लोभ से जिनेश्वरदेव के यथार्थ मत का गोपन तथा सत्य की कदर्थना कर मैंने श्रावकों का निग्रह किया।
मैं जानता था कि इन श्रावकों का कथन बिलकुल यथार्थ है, सही है, परंतु मैंने सरल हृदय से उसको स्वीकार नहीं किया, इसका मुझे खेद है ।
६३. उररीकरणं तु सुदूरतरमनभीष्टनिकेवलशिष्टशयः । विचिकित्सवतोऽवितथानपि हा! विपरीततया परिणामितवान् ॥
सत्य को स्वीकार करना तो दूर रहा, परन्तु अनुचित शिष्टाचार के मोह से मैंने वास्तविक संशय करने वाले उन श्रावकों को ही विपरीत रूप में परिणत कर डाला।
६४. प्रविभूय समाश्रयसाधुरहं, कृतवान् किल कीदृशकार्यमिदम् । मयि निर्मितनिश्चलचित्तवतां, गलकर्तनमेव मया विहितम् ॥
समता वृत्ति वाला साधु होकर भी मैंने यह कैसा कार्य कर डाला ! ये श्रावक मेरे पर ही चित्त टिकाए निश्चित होकर बैठे थे। मैंने तो इनका गला ही काट डाला।
६५. अनुभूय शरण्य निभं ननु मां, शरणं श्रितकं मम तैः सुजनः। ____अह विश्वसितिक्षतिपातकता, परिलिप्तविलिप्ततमोहमयम् ॥
उन सुजन श्रावकों ने मुझे शरणभूत समझकर ही मेरी शरण ग्रहण की थी। किन्तु मैंने अपने आपको विश्वासघात के पातक से विशेष रूप से लिप्त कर ही लिया।
६६. उपदेशकरोऽन्यनरेषु सदा, कुरु मा कुरु विश्वसितिप्रमयम् । __ अहमेव तदाऽऽचरभित्थमहो, धिकऽतोऽस्तुतमां मम भिक्षुकताम् ।
मैं निरन्तर ऐसा उपदेश करता रहता हूं कि किसी के साथ विश्वासघात मत करो, मत करो, पर आज मैं स्वयं ही ऐसा विश्वासघात कर बैठा, इसलिए मुझे तथा मेरे इस दम्भपूर्ण भिक्षुभाव को शतशः धिक्कार है ।
६७. उपदेशपदे जिसरागभवः, करणेषु न किञ्चिवपीह मम ।
कथमेव मदीयसमुद्धरणं, कथमेव च मामकसूद्धरणम् ॥