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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
११७. सान्त्वय्य तान् सहृदयो हृदयेन तावत्,
पप्रच्छ यूयमिह कि परिसंदिहानाः । यस्मात् प्रणामपरिशीलनमध्यपोह्य, वर्तध्व एतदभिनूत्नमतीवचित्रम् ॥
___ तब सहृदय मुनि भिक्षु ने हार्दिक सान्त्वना देते हुए उन्हें पूछा- क्या आप हमारे आचार-विचार के प्रति संदेहशील हैं ? इस संदेह के कारण ही आपने वंदना-व्यवहार को छोड़ कर नए व्यवहार को अपनाया है, यह आश्चर्य है।
११८. प्रोचुः प्रसह्य विरताऽविरतास्तदा ते,
शङ्का भवेदनुपलक्षितगोचरेषु । विस्पष्टदोषविषयेषु भवत्सु सा किं, निःशङ्कतास्ति शिथिलाः शिथिला भवन्तः॥
तब वे श्रावक हठात् बोले-'भंते ! शंका वहां होती है। जहां अस्पष्टता हो । परन्तु स्पष्ट रूप से दोषों का सेवन करने वाले आप साधुओं के प्रति शंका कैसे हो सकती है ? उसमें तो निःशंकता है। आप आचार में शिथिल हैं, शिथिल हैं।'
११९. कर्णावतंसकरणे कलिताशयश्चे
च्छोत्रे विभूषयितुमिच्छरयं समूहः । ॐमित्यवादि मुनिना तदितः स्फुटंहदुद्घाटय रक्षयति शैक्षकवद् यदग्ने ।
'यदि आप हमारे विचारों को सुनना चाहें तो हम अपने विचारों को आपके कानों तक पहुंचाने की कोशिश करें।' ऐसा सुन भिक्षु स्वामी ने 'हां' कह कर स्वीकृति प्रदान कर दी । तब उन श्रावकों ने भी मुनि भिक्षु के समक्ष अपना दिल खोलकर वैसे ही रख दिया जैसे एक शैक्ष-नवदीक्षित मुनि अपना दिल खोलकर गुरु के समक्ष रख देता है ।
१२०. श्राद्धा जिनेन्द्रसमयात् समयान्नवन्त',
आवेदयन्ति विनयन्तितरां तदेत्थम् । . वाक्कीलका नयपतेः पुरतः प्रमाण. धारानिदर्शनपुरस्सरतो यथाऽत्र ।
१. समयान्– संकेतान् ।