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________________ १६०. श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् वह पर्वतमाला इस मेवाड धरा को रक्षण योग्य एवं वीरभूमी जानकर तथा इन्द्र के द्वारा किए गए अपने भेदन का स्मरण कर, क्रोध करती हुई, इन्द्र के मार्ग को रोक मानो उसे जीतने के लिए चारों ओर मजबूत दुर्ग बना कर स्थित थी। ११०. सद्यो रसाल'मृदुमञ्जुलमञ्जरीभि र्माधुर्यधुर्यमधुकण्ठपिकादिकजः । सुस्वागतं विदधतीव मुनेः सुवातादुद्धयमानतरुमस्तकतो नमन्ती ।। सद्यस्क आम्र की मृदु-मंजुल मंजरियों के कारण कोयल की अत्यन्त सुमधुर कूजन से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो वह पर्वतमाला मुनिवृन्द का स्वागत-गान गा रही है और मन्द-मन्द पवन से हिलती हुई वृक्षशाखाओं से उनको वन्दन कर रही है । १११. एण्यच्छुभं किमपि निर्झरनिनिनाद चालितेव परिसूचयितुं त्वराभिः । यत्पुण्यतः प्रशमितेव तदा भवन्ती, मुक्ता भयादरवलीगिरिमालिकाऽगात् ॥ उस पर्वतमाला में यत्र-तत्र कलकल करते हुए निर्भर बह रहे थे । इस निनाद के मिष से वह पर्वतमाला किसी भावी शुभ की सूचना देने के लिए मुखरित होकर शीघ्र ही सामने आ गई। वह भिक्षु के पुण्य-प्रभाव से पूर्ण शांत और भयमुक्त हो गई थी। ११२. आक्रम्यतां सुखसुखेन समाधिमग्नो, मार्गस्थसंवसथपत्तनपत्तनानि । संस्पर्शयनवविदन् परितः प्रवृत्तं, निर्णाथनाथनगरं कृतवान् सनाथम् ।। वे समाधिस्ध भिक्षु अपने सामने आने वाली उस अरावली पर्वतमाला को पार कर सुखपूर्वक मेवाड़ में प्रविष्ट हुए और अपने गन्तव्य स्थल के बीच आने वाले गांवों तथा नगरों का स्पर्श करते हुए तथा चारों ओर के नये वातावरण की जानकारी प्राप्त करते हुए राजनगर पहुंचे-अनाथ राजनगर को सनाथ बना डाला। - १. रसाल:---आम्र ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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