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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
९४. पश्चात्ततोऽतिचतुरं चतुरन्तकारं,
विश्वासपात्रमतिमात्रसुपात्रमात्रम् । आत्मीयमन्त्यमनगारगुणाग्रगण्यं, भिक्षं स्वशिष्यमुकुटं प्रकटं बभाषे॥
तब आचार्य रघुनाथजी ने अति चतुर, वीतरागकल्प, अपने शिष्यों में मुकुटोपम, अनगार के गुणों में अग्रणी, पूर्ण सुपात्र एवं विश्वस्त मुनि भिक्षु को बुलाकर स्पष्ट रूप में कहा - ९५. त्वं याहि भूपतिपुरं त्वरितं ततस्त्यां
स्तांच्छावकान् परिहतप्रणतीन पटीयः! सम्बोध्य साम'चरणाच्चरणेऽस्मदीये, संयोजयेः समुपयोज्य पुनः प्रयुक्तिम् ॥
'हे निपुण मुने ! तुम शीघ्र राजनगर की ओर प्रस्थान करो और वंदन-व्यवहार न करने वाले वहां के श्रावकों को समझाकर, मधुर भाषा में सान्त्वना देकर, नाना युक्तियों से प्रतिबोध देकर, गुरु-चरणों में पुनः वन्दना करने लगे, वैसे उनको संयोजित करो।' ९६. एवं प्रशास्य प्रहितो मुनिपञ्चकेन,
तेषामिमानि विदितान्यभिधानकानि । द्वौ भारिमालवरटोकरजीतिसञौ, द्वौ वीरभाणहरनाथसुनामधेयौ ।।
इस प्रकार आदेश देकर आचार्य रघुनाथजी ने मुनि भिक्षु को इन चार मुनियों के साथ राजनगर भेजा। वे मुनि ये हैं---१. मुनि भारिमालजी, २. मुनि टोकरजी, ३. मुनि वीरभाणजी, ४. मुनि हरनाथजी ।'
९७. सोऽपि स्वयं स्वगुरुमोहविमोहितात्मा,
गुविङ्गिताश्रितगतिर्मतिमान् महीयान् । तल्लक्ष्यसिद्धिकरणे करणत्रिकेण, सत्त्वैकसिद्धिसहितः सुहितश्चचाल ॥
__ मुनि भिक्षु का अपने गुरु के प्रति अत्यन्त मोह था। वे इंगिताकार संपन्न, बौद्धिक संपदा से युक्त और महान् थे। वे गुरु के अभीष्ट कार्य को सिद्ध करने के लिए तीन करण, तीन योग से संकल्पित और सुसमाहित होकर वहां से प्रस्थित हुए। १. साम-मधुर भाषा से शांत करना, सान्त्वना देना (साम सान्त्वना
अभि० ३।४००)। २. ये चारों मुनि भिक्षु द्वारा दीक्षित थे।