SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५० श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् उन लोगों की बातों को सुनकर वे चिन्तनशील और विवेकी श्रावक बोले---'संसार में यह कभी मान्य नहीं है कि स्वीकृत गुरु यदि कुगुरु हैं तो उन्हें नहीं छोडना चाहिए।' ७२. जातिप्रथा न कुलवंशपरम्परेषा, नो गात्रपात्रकृतशकुमुखाकृतिश्च । यद्धीयते न कथमेव कृतेऽपि यत्ने, किन्त्वेष मोक्षनिगमः कुगुरुन सेव्यः ॥ यह न जातिप्रथा ही है और न कुल और वंश की परंपरा ही है, तथा यह न पशुओं के शरीर को दाग कर बनाया गया चिह्न ही है कि प्रयत्न करने पर भी न मिटे। मोक्षमार्ग का कथन है कि कुगुरु सेव्य नहीं होते। ७३. स्पष्टेषु दोषनिकरेषु निरीक्षितेषु, प्रेक्षावतां प्रकृतितो भवति प्रमशः। सन्देहनं न तदिदं तदपोहनं च, नो दूषणं भवति किन्तु विभूषणं तत् ॥ विचारशील व्यक्तियों की यह स्वाभाविक प्रकृति है कि वे स्पष्ट रूप से दीखने वाले दोषों का विचार-विमर्श करें। यह संदेह नहीं, किन्तु संदेह का अपनयन है । उनकी ऐसी प्रकृति दूषण नहीं, भूषण है। ७४. अक्षणोनिमीलनमथो विदितेषु तेषु, तत्तत्वसत्त्वहतमानवमुख्यमौर्यम् । यत् तत्तदात्मपतनं मथनं गुणानां, कर्तव्यताच्यवनमुद्गमनापनाशः॥ दोषों को देखते हुए भी उनसे आंखें मूंद लेना तो तत्त्वज्ञान से विकल एवं सत्त्वहीन व्यक्ति की वज्रमूर्खता है । यह उसके आत्मा का अधःपतन, गुणों का हनन, कर्तव्य-विमुखता और उन्नति के प्रशस्त पथ का अवरोधक है। ७५. कस्यापि भूरिचलनं हि न तन्महत्वं, स्याच्चेत्तदा व्यसनमत्र महत्त्वशालि । द्वित्रा हि तैविरहिताः किल सार्वभोमै स्तत्त्वैस्तके किमु भवेयुरहोऽतितुच्छाः॥ १. अथो इति अव्ययम्-संशये, आनन्तर्ये, विकल्पे-इत्याद्यर्थेषु ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy