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________________ १४८ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ६३. जानन्त एव ननु केऽपि तथापि तस्तैः, संवद्धिता निजमहत्वयशोर्थकामाः । अन्धान्धिलानुकरणे करणः प्रसक्ताः, व्यक्तित्ववर्द्धनपराश्चटुताप्रचाराः ॥ जानते हुए भी कई व्यक्तियों को बड़प्पन की भूख, साधु-प्रदत्त सम्मान, व्यक्तित्व की छाप, जनप्रिय बनने की लालसा आदि-आदि प्रलोभनों में पड़ने के कारण मिथ्या विचारों का समर्थन करना पड़ा और उसमें अपने मन, वचन व काया को लगाना पड़ा। ६४. एतादृशो हि सचिवाः सुदृशां विचारान्, श्रोतुं विधातुमपि नो ददते कदाऽपि । बेडा प्रबोड्य विरता भवितार एते, धिग् धिग् तथाविधजनान् चटुचाटुकारान् ॥ ___ जहां ऐसे चापलूस एवं स्वार्थपरायण व्यक्तियों का बोलबोला हो, वहां सज्जन पुरुषों के सद्विचारों का श्रवण और आचरण में आने की बात ही क्या ! आखिर ऐसे व्यक्ति नाव को डुबोकर एक ओर खिसक जाते हैं । ऐसे चापलूस व्यक्तियों को धिक्कार है । ६५. सच्छाद्धयोः समधिगम्य मिथस्तदा तत्, प्रश्नोत्तराणि पुरमेकमपि द्विधासीत् । किञ्चित् प्रशंसति जनान् स्वसतोऽपि किञ्चित्, स्तोका ऋता जगति शाश्वतिकी प्रवृत्तिः॥ साध और श्रावकों के बीच होने वाले इन प्रश्नोत्तरों ने राजगनगर की जनता को दो भागों में विभक्त कर दिया। कुछ सत्यान्वेषक श्रावकों के समर्थक और कुछ साधुओं के समर्थक बन गए । जगत् में सत्यग्राही लोग थोडे ही होते हैं, यह शाश्वतिकी स्थिति है । ६६. केचिद् यथार्थविदुरा अपि किन्तु भीताः, सामाजिकक्रशिमदुर्व्यवहाररीत्या। केचिद् भविष्यदवलोचनलोचनाश्च, केचित्प्रपञ्चमवगम्य तटस्थभूताः॥ कुछ यथार्थवेत्ता होते हुए भी समाज के कुत्सित व्यवहार से भयभीत होते हुए, कुछ भविष्य में इसका परिणाम क्या होगा ऐसा सोचते हुए और कुछ इस प्रपंच से दूर रहते हुए तटस्थ रहने में ही. लाभ समझते थे ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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