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________________ १४४ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ४८. दावानले ज्वलनतो विषपानतोऽपि, स्वाचारहीनगुरुसेवनमुग्रमेवम् । आलोच्य तैस्तदनगारगुणच्युतेभ्यस्त्यक्तोऽपि वन्दनविधिः स्फुटमात्मशक्त्या ॥ विष की पूंट पीने और दावानल की आग में जलने से भी अधिक खतरनाक है-आचारहीन साधुओं की उपासना। ऐसा विचार कर श्रावकों ने उन साधनाहीन साधुओं को वन्दना करनी छोड़ दी। यह उपक्रम उनकी आत्मशक्ति का परिचायक था। ४९. दुःश्राव्यवाचिकमिदं मरुमण्डलस्थः, संश्रत्य ते रघवरयंथितैय॑चिन्ति । कि संप्रवृत्तमवितर्यमतीवचित्रं, सज्जीवितेऽपि मयि मर्मणि वेधकारि ॥ जब राजनगर के श्रावकों द्वारा संबंध-विच्छेद की मर्मवेधी, असंभावित और अकित घटना का दुःखद समचार मरुधर में विचरते हुए आचार्य रघुनाथजी के कानों तक पहुंचा तो वे अत्यन्त खिन्न हुए। उन्होंने सोचा, आश्चर्य है कि ऐसी मर्मवेधी घटना मेरे जीवित रहते हुए भी घटित हो गई ! ५०. एकैकबोधनमपि स्फिरदुष्करं तत्, तद्यूथरूपगमनेन कथं न खेदः । श्राद्धा नवाः क्वचन किन्तु चिरन्तना ये, तेऽपीत्थमेव ननु यान्ति परिक्षिपन्तः ॥ ___ एक-एक श्रावक को प्रतिबोध देकर समझाना भी अत्यन्त कठिन है तो इस प्रकार श्रावकों का समूह रूप में वन्दन-विधि का परित्याग करना खेद का विषय कैसे नहीं हो सकता ? जब ये पीढियों के पुराने श्रावक भी आक्षेपपूर्वक हमें छोडते जा रहे हैं तो नये श्रावकों के बनने की तो आशा ही क्या ! ५१. कौलीन'मीदगिह संस्फुटनं जघन्य मीदृग् जनप्रवदनं कदनं सतां च । ईदृग् विसृत्वरगता खलु भावनापि, कि विष्टपे न गरगौरवनाशनाय । १. कौलीन-जनप्रवाद (जनप्रवादः कौलीन""-अभि० २।१८४) २. कदनं-प्रतिघात (प्रमथनं कदनं निबर्हणम्-अभि० ३॥३४)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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