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पंचमः सर्गः ३६. नेमे सपिण्डपुरुषा न च बान्धवा नः,
सम्बन्धिनः सगरमा: सहजा: सखायः । नैषां तथा वयमपि श्रुतित: परन्तु, स्वाचारतस्तदनुगास्तमृते किमेते ॥
इनका और हमार जो कुछ भी सम्बन्च है, वह तो केवल शुद्ध आचार का ही है । अगर वह नहीं है, तो ये हमारे कुछ नहीं। और ऐसे न ये हमारे हैं और न हम इनके हैं। ये न हमारे पिंडपुरुष-पिंडदान करने वाले निकटतम संबंधी हैं, न बन्धु हैं, न संबंधी हैं, न सगे भाई हैं और न मित्र हैं।
३७. एतांच्छितास्तरणतारणतागुणेन,
जन्मोदधेस्तरणतारणकामनाभिः । किन्तु स्वयं भवजले पतयालवोऽमी, संनिःसृताः कथमितस्तरणाभिलाषा ॥
ये मुनि तरण-तारण के गुण से युक्त हैं—यह सोचकर हमने संसारसमुद्र से पार होने और पार उतारने के लिए ही इनका आश्रय लिया था, परंतु ये स्वयं संसार-समुद्र में डूबने वाले हैं, अतः इनसे पार होने की अभिलाषा कैसे की जा सकती है ?
३८. एतान् यदि प्रविदितान् कुगुरून्ममत्वाद,
हास्याम एव न तदा न निजात्मलाभः । एतावतैव न तदीयजघन्यवृत्तः, प्रोत्साहिनस्त्वपरपाशनिपातिनोऽपि ।
यदि इन आचार-शिथिल कुगुरुओं को जानते हुए भी हम ममत्व के कारण नहीं छोड़ पाये तो हमें आत्म-लाभ कुछ नहीं होगा। इतना ही नहीं, हम इनके शिथिलाचार के पोषक भी होंगे और अन्य भोले-भाले लोगों को इस जाल में फंसाने में सहायक बनेंगे ।
३९. सम्पर्कसङ्गमनवन्दनसेवनार्चा,
सत्कारमानसहसंवसनादिकानि । पाषण्डिभिः कुगुरुभिः पतितः कृतानि, पाषण्डताविपरिबृंहणकारणानि ॥
शिथिलाचारी साधुओं का सम्पर्क, संगति, वन्दना, सेवा, अर्चना, सत्कार एवं सम्मान तथा सहवास-ये सारे कार्य शिथिलाचार को प्रोत्साहन देने वाले हैं।