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पंचमः सर्गः
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२८ आलोचयन्ति चतुराश्चलिताशयास्ते,
तैः स्वीकृतात्मगुरुभिः स्खलितावदातः। लङ्कापतेर्लघुतमानुजसज्जनाद्याः, विना विभीषणबृहत्सहजैर्यथैव ॥
वे मेधावी श्रावक प्राप्त तत्त्व के आलोक से अपने स्वीकृत गुरुओं के दोषपूर्ण कार्यों को देखकर वैसे ही विचलित एवं चिन्तामग्न हो गए जैसे राजा रावण की त्रुटियों को देखकर उनका छोटा भाई विभीषण और बड़े भाई तथा अन्य सज्जन पुरुष विचारमग्न हो गए थे। २९. क्वाऽऽचारगोचरविधिद्वतिनां जिनेन्द्रः,
सन्दर्शितः क्वचन ते गुरवोऽस्मदीयाः । क्वाऽहर्पतिद्युतिततिर्जगतां हिताय, खद्योतपोतकिरणाः क्व च कर्मकुण्ठाः ।।
वे सोचने लगे—कहां तो तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित जैन मुनियों की आचार विधि और कहां हमारे गुरुओं की पालन विधि ! कहां तो समस्त विश्व के हितकारी सूर्य का आलोक और कहां जुगुनुओं की उपयोगशून्य चमक-दमक !
३०. शास्त्रैः प्रशास्तृपटुभिः सहजरिवानी,
चक्षुश्चतुष्टयमकारि विकारिणां नः। सत्यं किमस्ति किमसत्यमथो विचिन्त्यमेवंविधो जनगणे मधुरानुलापः ॥ ___ इन सत्य-दर्शन शास्त्रों ने तो हमारे जैसे अज्ञानियों को भी ज्ञान देकर सहज रूप में चार आंखों वाले बना दिया है, अब हमें सत्य क्या है, असत्य क्या है, इसका निर्णय कर लेना चाहिए, ऐसी सुमधुर भावना का संचार उन श्रावकों में होने लगा।
३१. सूक्ष्मार्थशोधनविधौ न वयं समर्थाः,
स्थूलार्थसङ्ग्रहविधौ तु कथं न शक्ताः। साक्षादनेकजिनशासनवपरीत्याऽऽची विशीर्णचरिताः श्लथिता इमे च ॥ ,
हम सूक्ष्म अर्थ का अन्वेषण करने में समर्थ नहीं हैं, किन्तु स्थूल अर्थ को जानने के लिए हम समर्थ क्यों नहीं हैं ? हमें यह साक्षात् प्रतीत हो रहा है कि ये मुनि जिनेन्द्र देव द्वारा निषिद्ध अचार में प्रवृत्त होकर अपने चारित्र को जीर्ण-शीर्ण कर श्लथ हो गए हैं।