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________________ चतुर्थः सर्गः १२३ १०१. माकन्दमालामकरन्दवृन्दस्वच्छन्दगन्धोद्धरमञ्जरीमिः। निष्कुण्ठकण्ठः कलकण्ठकूज:, प्रोल्लास्यमानः परितः सदा यः॥ १०२. नानाद्रुमैर्गुल्मलताविताने ना सुवर्णादृतपुष्पपुजैः। रम्यं वनं यत्र यतस्त्रपाभिर्गोपायितं स्वर्गवनं निरीक्ष्य ॥ १०३. क्रीडातडागः प्रतिबद्धघट्टो, यत्रोत्तमाराममनोमनोज्ञः । तत्संनिधौ बालुगिरिबकाहो, मर्यादितो वेदिजया स्थिरोऽतः॥ १०४. खजूरवृक्षास्तटिनीतटान्त, ऊध्र्वदमाः कीर्णजटा जटालाः । मौनाश्रिताः प्राञ्जलिनो हि यत्र, योगीयमाना इव ते तपन्ति ॥ १०५. एषा पुरी प्राग विदितकचक्रा, यत्राागताः पाण्डुसुता अचक्राः । भीमेन शान्त्यै निहतो बकोऽत्र, प्रत्नी यदर्थ भवि किंवदन्ती ।। १०६. तस्मिस्तदा श्रीमति मेदपाटे, माद्यन्महाराजपदाधिकारे। बागोरनाम्नि प्रथिते पुरेस्मिन्नेकं चतुर्मासमशिश्रियत् सः॥ (षभिः कुलकम्) उस मेवाड देश में 'बागोर' नाम का नगर था। वह आम्रवृक्षों के मकरन्द तथा अन्यान्य स्वच्छन्द गन्ध से गर्भित मंजरियों के आस्वादन से निष्कुंठित कंठवाली कोकिलाओं के सुमधुर कूजन से अत्यन्त कमनीय लगता था। वह नगर सुन्दर उपवन से शोभित था। उस उपवन में नाना प्रकार के वृक्ष तथा रंग-बिरंगें पुष्पों से परिपूर्ण अनेक गुल्म और लताएं थीं। उस उपवन की शोभा को देखकर स्वर्ग का उपवन भी लज्जा से कहीं छुप गया हो, ऐसा प्रतीत हो रहा था। वहां उत्तम और मनमोहक आराम से परिवृत और सुन्दर घाट से प्रतिबद्ध एक क्रीडा सरोवर भी था, जिसके पास में ही 'बक' नामक बालु का एक पहाड़ था। किंवदन्ती है कि वह द्रौपदी द्वारा मर्यादित किया गया था, अतएव स्थिर रह रहा था (सरोवर में नहीं धंसता था)। ___ उस नगर के बाहर नदी के तट पर ऊंचे-ऊंचे खजूर के वृक्ष अपनी जटाओं को फैलाए हुए खड़े थे । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो सीधे खड़ेखड़े मौनाश्रित जटाधारी योगी तपस्या कर रहे हों। १. वेदिजा-द्रौपदी (वेदिजा याज्ञसेनी च-अभि० ३।३७५) २. ऊर्ध्वन्दमः-खडे हुए (ऊध्वं ऊर्वन्दमः स्थितः-अभि० ३।१५६) ३. प्राञ्जल:-ऋजु (ऋजुस्तु प्राञ्जलोऽञ्जसः-अभि ३।३९) ४. प्रत्नी-प्राचीन (पुराणं प्रतनं प्रत्न-अभि० ६।८५)
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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