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________________ १२० श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ८५. जेतारणेऽभूत सृखतस्तृतीयस्तुर्यो बलंदानगरे बलिष्ठः। . एवं क्रमादाक्रमतो धरित्री, क्रान्ति: समागादिह पञ्चमस्य । तीसरा चतुर्मास अत्यन्त आनन्द के साथ जेतारण में हुआ और चौथा चौमासा बलुन्दा नगर में सम्पन्न हुआ। इस प्रकार क्रमशः विहार करते हुए आपके पांचवे चतुर्मास में क्रान्ति का उद्भव हुआ। ८६. आसीत् तदाऽखण्डितगर्वगर्वी, देशेषु देशो बरमेदपाटः । .. वीरत्वलक्ष्मीदृढदुगंकल्पः, शौण्डीरिम'श्रीन्यवसद् यदत्र ॥ __ उस युग में अपने अक्षुण्ण गौरव को बनाये रखने वाला तथा समस्त देशों में प्रमुखतम स्थान रखने वाला मेवाड नाम का देश था। वह वीरत्व लक्ष्मी का दृढ दुर्ग था, जहां वीरता साक्षात् निवास करती थी। ८७. तद्देशजा एव न गौरवाही, यन्नामतो हिन्दुपदेन वाच्याः। ___ अद्याऽपि सर्वेऽस्खलिताभिमान रोजोऽभिपूर्णास्त्वरितं भवन्ति ॥ केवल उस देश के वासी ही उस देश से गौरवान्वित नहीं थे, किन्तु हिन्दु जनमात्र उससे गौरवान्वित हो रहे थे और आज भी उस देश के नाममात्र से सभी स्वाभिमान के ओज से आप्लावित हो जाते हैं। ८८. कि यत्र रत्नानि धनानि सन्ति, किं वा विलासाञ्चितमन्दिराणि । योगीश्वरस्येव निजावलेपे, प्राणानपि प्रोज्झति योऽतिवीरः ।। क्या वहां रत्न और धन का संचय है ? क्या वहां वैभव और विलास से परिपूर्ण विशाल भवन हैं जिनसे कि वह देश महान् है ? नहीं, किन्तु वह एक महान् पराक्रमी देश है जो अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए एक योगीश्वर की भांति अपने प्राणों का उत्सर्ग करने के लिए सदा तैयार रहता ८९. म्लेच्छरनारभिभूयमानास्तीथैः सुरास्तेऽपि पलायमानाः। यस्मिच्छरण्ये शरणायगूढा, नणां शरण्यः किमु तस्य चित्रम् ॥ जब म्लेच्छों तथा अनार्यों द्वारा संत्रस्त किये जाने पर देवगण भी अपने तीर्थस्थानों को छोड़ भाग गए और अन्यत्र कहीं आश्रय न मिलने के कारण यही शरणभूत मेवाड़ देश उन्हें शरण देने वाला बना, तो फिर मनुष्यों के लिये यह देश शरणभूत हो तो आश्चर्य ही क्या ? ९०. वैधय॑सम्मदरजस्वलानं, दोधूयमानो विजयध्वजैर्यः। राजन्महादुर्गनरेशकीत्तिस्तम्भरदम्भंगिरिचित्रकूटः॥ १. शौण्डीरिमा--वीरता।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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