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चतुर्थः सर्गः
१०७ जैसे भीनी-भीनी गन्ध से चन्दन, आम्रवृक्षों से वसन्त तथा निर्मल चन्द्र से चन्द्रकांत मणि सुशोभित होता है वैसे ही भिक्षु उन देदीप्यमान आभूषणों से शोभित हो रहे थे। २१. एतस्य वा नः सुषमाऽधिकं किमित्याशया मण्डनमण्डलानि ।
आलोकयन्ति स्वमणीक्षणेभ्यः, प्रीत्या यदाऽऽसेचनक'प्रतीकान् ॥ ___हम अधिक सुन्दर हैं या भिक्षु का शरीर अधिक सुंदर है'—यह सोचकर आभूषण अपने मणिरूप नेत्रों से उन अवयवों को टकटकी लगाए देख रहे थे जिनको देखने से दृष्टि तृप्त होती ही नहीं।
२२. वैचित्र्यनैपथ्यमरीचिचभित्ति विना व्योमविशालदेशे। चित्राणि चित्राणि विचित्रयन्ति, नाना घनं चारु महेन्द्रचापम् ।।
भित्ति के बिना ही उनके विचित्र वेशभूषा से फूटती हुई किरणों से उस अनन्ताकाश में रंग-बिरंगे विचित्र चित्र चित्रित हो रहे थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो बिना मेघ ही आकाश में सुन्दर इन्द्रधनुष चित्रित हो रहा
२३. तद्विश्रुतापूर्वमहामहेषु, स्वस्वालयान्नागरिकैर्वृतोऽयम् । प्राभातिकेऽनेहसि रोहिताश्वाद, विद्योतमानः किरणरिवार्कः॥
उस विश्रुत और अनूठे समारोह में भाग लेने के लिए अपने-अपने घरों से निकल कर लोगों ने दीक्षार्थी को चारों ओर से वैसे ही घेर लिया जैसे अग्नि की उपेक्षा करने वाली प्रत्यूष काल की लाल किरणें सूर्य को घेर लेती हैं।
२४. स्वर्भूर्भुवः प्रष्ठपरेशपत्र विस्मापकं बन्धुरतोद्धरीणम् । उत्कोचितं यानममुष्य तैस्तैः, शकादिकैस्तीर्थपतेरिवाय॑म् ॥
लोकत्रय के प्रमुखतम यानों को भी विस्मित कर सकने वाले ऐसे सुन्दरतम यान (वाहन) आपके सामने वहां की जनता ने प्रस्तुत किये जैसे कि शक्रेन्द्र आदि तीर्थाधिनायक तीर्थंकर के लिए प्रस्तुत करते हैं। १. आसेचनकम्-जिसको देखने से नेत्र तृप्त न हों (तदासेचनकं यस्य ___ दर्शनाद् दृग् न तृप्यति-अभि० ६।७९) २. प्रतीक:-अवयव, अंग (एकदेशे प्रतीकोऽङ्गावयवा-अभि० ३।२३०) ३. नाना-बिना (हिरुग् नाना पृथग् विना-अभि० ६।१६३) ४. रोहिताश्वाद्-रोहिताश्वं-अग्निमुपेक्ष्य इत्यर्थः । ५. पत्रं-वाहन (यानं युग्यं पत्रं वाह्यम्-अभि० ३।४२३)