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तृतीयः सर्गः
'जैसे जैमिनीय संप्रदाय के अनुयायी देव संबंधी मान्यताओं में प्रयत्नशील नहीं होते वैसे ही मुनि शरीर के प्रति प्रयत्नशील नहीं होते । वे शरीररूप इस क्षेत्र का उग्र तपरूप हल से विलेखन करते हैं और तब वह क्षेत्र विमुक्तिरूप धान्य देता है।' १०२. भटा रणे तुच्छयशोर्थकामा:, प्रियानसूनप्यचलास्त्यजन्ति ।
ततो महानन्दमहोदयार्थी, कथं जिहासुर्न भवामि तांश्च ॥
'हे अम्ब ! तुच्छ यश और धन के कामी सुभट रणांगण में अडिग रहकर अपने प्राणों की आहुति दे देते हैं। मैं महान् आनन्द और महोदयमोक्ष का कामी हूं। मैं संयम-निर्वाह के लिए प्राणत्याग कैसे नहीं करूंगा ?'
१०३. अणुव्रताध्वा विषमः कृशानां, कृते त्वहं प्राध्वरमार्गमिच्छुः ।
अशाश्वतः सौगततत्त्ववन् मे, भवो भविष्यन् सुतरां यतो हि ॥
'मां ! अणुव्रतों का मार्ग विषम है, वक्र है और वह दुर्बल व्यक्तियों के लिए है। मैं प्राध्वरमार्ग-अविषम मार्ग मोक्षमार्ग का इच्छुक हूं। जब मैं इस मार्ग का पथिक बन जाऊंगा तब मेरा जन्म-मरण रूप भव सौगत (बौद्ध) तत्त्वों की भांति सदा के लिए अशाश्वत हो जायेगा।' १०४. वपुःप्रतिच्छायिकया हि कालश्छलोपदर्शीव नरानुयायी।
अतो हितं तत् करणीयमेव, जिनक्रमाब्जं शरणीयमेव ।।
'यह काल छद्मदर्शी की तरह शरीर की प्रतिच्छाया के रूप में मनुष्य के पीछे-पीछे चल रहा है। अतः जो हित है उसे साध लेना चाहिए और जिनराज के चरण-कमलों की शरण ले लेनी चाहिए।'
१०५. विभूतिमुद्धय शिवः शिवार्थी, सुबोधबुद्धोऽक्षणिकोऽत्र बुद्धः ।
निजात्मधाता भवितुं विधाता, सदा हृषीकेश' इव व्रजामि ।।
'मैं विभूति को छोड कल्याणार्थी शिव, सम्यग ज्ञान के द्वारा शाश्वत बुद्ध, अपनी आत्मा का निर्माण कर विधाता और सदा हृषीकेश -- जितेन्द्रिय होकर व्यापक बनना चाहता हूं।'
१०६. पुनर्भवोऽसावपुनर्भवानामहं महानन्दविशालसौधे ।
वितीर्य सत्त्वानभयं भवौघात्तपस्यया द्रागऽतिथिर्भवामि ॥
१. हृषीकेश:--जितेन्द्रिय-हृषीकाणामिन्द्रियाणामीशो वशिता हृषीकेशः । २. तपस्या-व्रतग्रहण (तपस्या नियमस्थिति:--अभि० ११८१)