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________________ तृतीयः सर्गः ९३ 'अम्ब ! इस संसार में अपने सगे-संबंधियों से प्रेरित होकर नट केवल उदरपूर्ति के लिए लोहनिर्मित तलवार की तीक्ष्ण धार पर नाचते हैं । मैं तो शाश्वत ऐश्वर्य को प्राप्त करना चाहता हूं, इसलिए साधना के पथ पर चलने के इच्छुक मुझको आप न रोकें ।' ९२. यशः प्रशंसाश्रुतिनामलिप्सां, शुभात्मलक्ष्याद् विनिपातयित्रीम् । सुदुविमोचामपि तत्त्वदर्शी, मुमुक्षुरात्मीयमहोदयाय ॥ 'मां' ! यश, प्रशंशा, ज्ञान और नाम की लिप्सा शुभ आत्मलक्ष्य नीचे गिराने वाली होती है । उसे छोडना सरल नहीं है । किन्तु अपने आत्मोत्थान के लिए तत्त्वज्ञ व्यक्ति उस लिप्सा को छोड़ देता है ।' ९३. म्रियन्त एव प्रपतन्ति सिन्धौ तरन्ति तत्र क्षणिकार्थकामाः । व्रताधिमग्ना अमरीभवन्ति, तरन्नहं किं त्वयका निषिध्ये || 1 'मातुश्री ! धन की क्षणिक कामना से गोताखोर समुद्र में गोता लगाते हैं और कभी-कभी तैरते तैरते मर भी जाते हैं, पर इस साधना - सिन्धु में गोता लगाने वाला तो निश्चित ही अमरत्व पद को पाता है । अत: ऐसे साधना समुद्र में तैरने वाले मुझको आप क्यों रोक रही हैं ?" ९४. सुशिक्थक क्लृप्तमृदुद्विजन्माश्चणान् विचर्वन्ति न कि सुमन्त्रैः । विरागमन्त्राभिनियन्त्रितोऽहं. सुवृत्तमास्वादयितुं सयत्नः ॥ 'मंत्राधिष्ठित मोम के दांतों से लोहे के चने भी चबाये जा सकते हैं तो वैराग्य के मंत्र से अभिनियंत्रित मैं सुचरित्र का पालन करने के लिए प्रयत्नशील बनूं तो इसमें बाधा ही क्या है ? ' ९५. पुरोक्त पूर्वीयजिनादिसूनुजितो न कि बाहुबलीयसा सः । तथोपसगं चतुरन्तचक्रेश्वरं विजेता भविता क्षमाभिः ॥ 'भगवान् आदिनाथ के पुत्र बाहुबली ने अपने बल से भरत चक्रवर्ती को भी जीत लिया था, तो मैं भी अपने क्षमाबल से उपसर्ग रूपी चातुरंत चक्रवर्ती पर विजय प्राप्त कर लूंगा ।' ९६. संसारकारान्तरचारिभि: कि, न सह्यतेऽसंख्यविपत्तिपंक्ति: । - तदा चिदानन्दददद्व्रताय, प्रगाढदुःखैरपि कोऽनुतापः ॥ १. जन्मशब्द: अकारान्तोप्यस्ति ।
SR No.006278
Book TitleBhikshu Mahakavyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages350
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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