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प्रकाशकीय
भारत के सांस्कृतिक विकास की कथा अति प्राचीन है। भारत वसुन्धरा के उद्यान में अनेक धर्म दर्शन और विचारधाराओं के विविधवर्णसुमन खिले हैं, जिनकी सुरभि से बेचैन विश्व को त्राण मिला है। तपः पूत आचार्यों/ऋषियों/मनीषियों का समग्र चिन्तन ही भारतीय संस्कृति का आधार है। जैन धर्म प्रवर्तक तीर्थंकरों तथा जैनाचार्यों ने भारतीय संस्कृति के उन्नयन में जो योगदान किया है, वह सदा अविस्मरणीय रहेगा। पुरातत्व, वास्तुकला, चित्रकला तथा राजनीति के क्षेत्र में इस धारा के अवदान को भूलकर हम भारतीय संस्कृति की पूर्णता को आत्मसात् कर ही नहीं सकते। साहित्यिक क्षेत्र की प्रत्येक विद्या में उनके द्वारा सृजित महनीय ग्रन्थों से सरस्वती भण्डार की श्रीवृद्धि हुयी है।
अद्यावधि उपलब्ध जैनों के प्राचीन साहित्य से ज्ञात होता है कि जैन साहित्य लेखन की परम्परा कम से कम ढाई सहस्त्र वर्षों से अजस्त्र व अविच्छिन्न गति से प्रवाहशील है इस अन्तराल में जैनाचार्यों ने सिद्धान्त, धर्म, दर्शन, तर्कशास्त्र, पुराण, आचारशास्त्र, काव्यशास्त्र, व्याकारण, आयुर्वेद, वास्तु-कला, ज्योतिष और राजनीति आदि विषयों पर विविध विधाओं में गम्भीर साहित्य का सृजन किया है। जैनाचार्यों ने प्राकृत. अपभ्रंश व संस्कृत भाषा के साथ युग की आवश्यकता के अनुसार किसी भाषा विशेष के बन्धन में न बंधकर सभी भाषाओं में प्रचुर मात्रा में साहित्य लिखा है।
कालदोष के कारण, समाज में अर्थ की प्रधानता के बढ़ने से साम्प्रदायिक व दुराग्राही संकीर्णमना राजाओं द्वारा दिगम्बर साधुओं के विचरण पर प्रतिबन्ध लगने से तथा अन्यान्य कारणों से जैन साहित्यमंदाकिनी की धारा अवरुद्ध सी होने लगी थी। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में महाकवि पं. भूरामल शास्त्री (महाकवि आचार्य ज्ञानसागरजी) का उधय हुआ, जिन्होंने सिद्धान्त, धर्म दर्शन अध्यात्म के अतिरिक्त संस्कृत व महाकाव्यों का प्रणयन कर साहित्य-भागीरथी का पुनः प्रवचन कर दिया और तबसे जैन साहित्य रचना को पुनर्जीवन मिला और बीसवीं शताब्दी में अनेक सारस्वत आचार्यों/मुनियों/गृहस्थ विद्वानों ने गहन अध्ययन करते हुए महनीय साहित्य की रचना की और अब भी
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