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कथावस्तु
देवदत्ता रोहीतक नगर के गाथापति दत्त की पुत्री थी। उसकी माता का नाम कृष्णश्री था। एक बार यौवनप्राप्त देवदत्ता सखियों के साथ अपने घर की छत पर स्वर्ण-गेंद से खेल रही थी। उसी समय उस नगर का राजा वैश्रमणदत्त कुछ व्यक्तियों के साथ अश्वक्रीडा के लिए जाता हुआ उधर से निकला । राजा की दृष्टि देवदत्ता पर पड़ी। उसके रूप, सौंदर्य और लावण्य को देखकर वह मुग्ध हो गया। उसने अपने अनुचरों से पूछा-यह कन्या कौन है ? किसकी पुत्री है ? तब दत्त गाथापति के परिवार से परिचित एक व्यक्ति ने कन्या का परिचय दिया। राजा अपने महलों में आ गया। वह देवदत्ता को अपने पुत्र पुष्यनंदी की वधु बनाने का स्वप्न देखने लगा। उसने देवदत्ता की मांग के लिए कुछ विश्वस्त पुरुषों को दत्त गथापति के घर भेजा। वे उसके घर गये। दत्त गाथापति ने उसका सत्कार किया और आने का कारण पूछा । उन्होंने राजा की भावना रखते हुए युवराज पुष्यनन्दी के लिए देवदत्ता की मांग की। दत्त गाथापति ने उसे स्वीकार कर ली। वे पुनः राजा के समीप आये और उसे समस्त वृत्तान्त सुना दिया। राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उन्हें प्रचुर परितोषिक देकर विसर्जित कर दिया।
शुभ मुहूर्त में युवराज पुष्यनन्दी और देवदत्ता का पाणिग्रहण हो गया। दोनों आनंदपूर्वक रहने लगे। कालान्तर में राजा वैश्रमणदत्त का स्वर्गवास हो गया। युवराज पुष्यनन्दी राजा बना । पिता की मृत्यु के बाद वह अपनी माता की विशेषरूप से सेवा करने लगा। वह प्रतिदिन उसे नमस्कार करता। अभ्यंगन (तेल मालिश) आदि कराकर उसे सुगंधित जल से स्नान करवाता और अपने हाथ से उसे भोजन करवाता। तत्पश्चात् वह अपना समस्त कार्य करता । उसे देवदत्ता के समीप जाने का समय ही नहीं मिल पाता था। एक दिन देवदत्ता ने सोचा राजा पुष्यनन्दी अपनी माता की सेवा में विशेष रूप से संलग्न रहता है, अतः उसे मेरे समीप आने का समय ही नहीं मिलता। मेरे सुख में बाधक यह राजमाता ही है, अतः क्यों न इसे मार दूं । इस प्रकार विचार कर वह राजमाता को मारने के लिए उचित