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ललियं गचरियं
१०. मनुष्य धर्म से निश्चित ही आध्यात्मिक और पौद्गलिक सुख को प्राप्तः करते हैं । संसार में धर्म का प्रभाव विचित्र है । धर्महीन व्यक्ति उस सुख को प्राप्त नहीं करते हैं ।
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११. यह कहकर राजा ने सज्जन को सब घटित बात सुनाई । सुनकर सज्जन बहुत आश्चर्यचकित हुआ ।
१२. अपनी बात कहकर शुद्धहृदयी राजा ने सज्जन से पूछा तुम्हारी यह दशा कैसे हुई ? तुम यहां अभी कैसे आ गये ?
१३. मैंने तुम्हें जो धन दिया था वह कहां और कैसे नष्ट हो गया ? राजा की वाणी सुनकर सज्जन ने दुःखी होकर कहा
१४-१५. राजन् ! तुम मेरी बात मत पूछो। मैं भाग्यहीन मनुष्य हूं। मैं
तुम्हें दुःख देकर और वन में छोड़कर जब वहां से नगरी की ओर रवाना हुआ तब मार्ग में अनेक चोर मिल गये । उन्होंने मेरे सब धन का हरण कर लिया और मुझे पीटकर वन में भाग गये ।
१६. तब मैं धनहीन हो गया और सोचने लगा- मुझे क्या करना चाहिए ? क्योंकि धनहीन व्यक्ति का कोई मित्र नहीं होता । सभी उसका तिरस्कार करते हैं ।
१७. चिंतन में अन्य मार्ग न सूझने पर मैंने यह निश्चय किया कि भिक्षा से ही उदर का पोषण करूंगा। क्योंकि भिक्षा के समान दूसरा सरल मार्ग नहीं है ।
१८. जब मैं भिक्षा के लिए घरों में जाता हूं तब कई मनुष्य तो मुझे सत्कार - पूर्वक देते हैं और कई दुर्जन लोग मेरा तिरस्कार करके भी भिक्षा नहीं देते ।
१९. इस प्रकार प्रचुर दुःख, सुख सहन करता हुआ मैं यहां अकल्पित आ गया हूं । भिक्षा के द्वारा जो उपलब्ध होता है उसी से हे मित्र ! मैं अपना पोषण करता हूं ।
२०. मैंने तुम्हें बहुत दुःख दिया है उसी का अभी यह फल मिला है । जो मनुष्य सदा दूसरों को दुःख देता है वह निश्चित ही संसार में दु:ख पाता है ।