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चतुर्थ पर्व
१. एक दिन राजा ललितांग अपने सुंदर महल के झरोखे में बैठकर राज
पथ में आने जाने वाले मनुष्यों को देख रहा था। २. अचानक उसका पूर्व मित्र कुटिल सज्जन उसे दिखाई दिया। उसको याचक रूप में देखकर उसके मन में आश्चर्य हुआ और करुणा भी।
३. उसने एक नौकर को बुलाकर कहा-तुम शीघ्र राजमार्ग पर जाओ
और उस याचक को यहां पर ले आओ जो अभी राजपथ पर जा रहा
४. राजा की वाणी सुनकर नौकर ने नीचे जाकर याचक से कहा-राजा
ने तुम्हें अभी बुलाया है । तुम मेरे साथ राजप्रासाद में चलो। ५. दास की वाणी सुनकर सज्जन भयभीत होकर स्तब्ध हो गया। मैंने
अभी क्या बुरा कार्य किया है जिससे राजा ने मुझे बुलाया है ? ६. सज्जन ते संभ्रान्तं होकर पूछा-राजा ने मुझे क्यों बुलाया है ? नौकर ने कहा-मुझे कुछ मालूम नहीं है । भृत्यजन तो स्वामी के निर्देश
का पालन करने वाले होते हैं । ७. भयभीत होकर सज्जन उसके साथ महल में गया । राजा को देख कर
उसका भय दूर हो गया। क्योंकि उसका मित्र ही राजा के रूप में विराजमान था । ८. सज्जन ने विस्मित होकर राजा ललितांग से पूछा-तुमने यह राज्य कैसे
प्राप्त किया ? निश्चित ही तुम भाग्यवान् हो। ९. प्रश्न सुनकर राजा ललितांग ने सज्जन से कहा-धर्म के प्रभाव से ही मैंने यह राज्य प्राप्त किया है, इसमें संशय नहीं है।