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ललियं गचरियं
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८७. कुमार ने स्वप्न में भी मन में यह नहीं सोचा था कि सज्जन का मन वयुक्त है ।
८८. जब वह नेत्र लेने के लिए उत्सुक हुआ तब कुमार ने जाना कि सज्जन मायावी है ।
८९. अब अनुताप करने से कुछ भी नहीं होगा । शीघ्र ही वचन का पालन कर मुझे धर्म की रक्षा करनी चाहिए ।
९०. इस संसार में धर्म ही मेरा सहचर है, अन्य कोई नहीं । धर्म ही त्राण है, गति है और धर्म की सदा शरण है ।
९१. धर्मरत व्यक्ति संसार में सदा सुख पाता है । इसमें मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं है ।
९२. यह कहकर कुमार ने प्रसन्नचित्त से अपने नेत्र निकाल कर सज्जन को दे दिये ।
९३. हम धर्म की रक्षा के लिए सब कुछ अर्पण कर सकते हैं, ऐसा कहने वाले बहुत मनुष्य हैं ।
९४. किन्तु समय पर जो सब कुछ अर्पण कर सकते हैं ऐसे व्यक्ति संसार में विरले ही हैं ।
९५. कुमार की धर्म के प्रति इस श्रद्धा को देखकर सूर्य भी अभिवादन करता हुआ किरणों के साथ चला गया ।
९६. नेत्र, आभूषण और घोड़ा लेकर सज्जन कुमार को वहां अकेला छोड़कर
चला गया ।
९७. अधार्मिक व्यक्तियों के सम्मुख सदा अंधकार रहता है—यह कहता हुआ. अंधकार उसके सम्मुख छा गया ।
द्वितीय सगं समाप्त