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ललियंगचरियं
२५ ३४. हे मित्र ! धर्म की जय होती है या अधर्म की। उसका प्रश्न सुनकर
कुमार ने कहा३५. तुम्हारा प्रश्न विचित्र है। इसमें क्या संदेह है कि धर्म की जय होती
है ? इसमें सभी एक मत है। ३६. तब सज्जन ने कहा-हे मित्र ! यह बात सत्य नहीं है। अधर्म की
जय होती है, धर्म की नहीं। ३७. उदाहरण भी तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष है । यदि तुम धर्म को छोड़ देते तो
इस स्थिति को प्राप्त नहीं होते । ३८. तब कुमार ने कहा- यदि पिता के हृदय में धर्म का वास होता तो मुझे
यह आदेश नहीं देते। ३९. इस प्रकार दोनों परस्सर में विवाद करने लगे। कोई भी किसी की
बात स्वीकार नहीं करता था। ४०. तब कुमार ने सज्जन से कहा-किसी व्यक्ति को पूछ कर इसका निर्णय
करना चाहिए। ४१. तब सज्जन ने कहा-तुभने ठीक कहा । मुझे भी यह पसंद है। किन्तु
एक शर्त है। ४२-४३. यदि मेरा कथन असत्य होगा तो मैं आजीवन तुम्हारी दासता
स्वीकार कर लूंगा और यदि तुम्हारा कथन असत्य होगा तो तुम्हारे सब आभूषण और घोड़े मेरे हो जायेंगे ।
४४. कुमार ने सज्जन की बात स्वीकार कर ली। धार्मिक व्यक्ति अधर्म के
सम्मुख कभी झुकता नहीं। ४५. जो व्यक्ति सिद्धान्त की रक्षा के लिए राज्य छोड़ सकता है उसके लिए
घोड़े और आभूषण का क्या मूल्य है ?