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________________ द्वितीय सर्ग १. जैसे-जैसे लोक में अन्धकार बढ़ने लगा वैसे-वैसे कुमार का मन भी खिन्न होने लगा । २. 'मुझे अब क्या करना चाहिए' ऐसा वह सोचने लगा। क्या नगरी को छोड़ दूं या दुःखी व्यक्तियों का सहयोग करना छोड़ दूं ?. ३. जिसका मैंने प्रत्यक्ष फल प्राप्त किया है उस सहयोग को मैं पिताजी के भय से कैसे छोड़ दूं ? ४. यद्यपि पिताजी पूज्य हैं। मुझे सदा उनकी आज्ञा माननी चाहिए किन्तु इस कार्य में उनकी आज्ञा कैसे मानूं ५. जो व्यक्ति धन प्राप्त करके भी गरीबों का सहयोग नहीं करता उसके धन का दूसरा क्या उपयोग है ? : ६. अत: मैं नगर को छोड़ दूंगा किन्तु सहयोग करना नहीं । चाहे पिताजी प्रसन्न हो या क्रुद्ध | ७ जो कोई भी कष्ट मेरे पथ में आयेंगे मैं उन्हें समभाव से सहन करूंगा और कभी भी विचलित नहीं होऊंगा । ८. दृढधर्मी के निर्णय को जानकर अंधकार भी यह सोचता हुआ धीरे-धीरे चला गया कि यहां मेरा स्थान नहीं है । ९-१०. अलंकार-गृह से कुछ आभूषण और पाथेय लेकर, घोड़े पर चढ़कर वह सूर्योदय के पूर्व ही नगर को छोड़कर चला गया। मनुष्य अपने सिद्धान्त की रक्षा के लिए क्या नहीं करता ?
SR No.006276
Book TitlePaia Padibimbo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVimalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages170
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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