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कथावस्तु
ललितांगकुमार श्रीवास नगर के राजा नरवाहन का पुत्र था । वह धार्मिक, दानपरायण तथा दयार्द्र था । जब वह किसी दीन-दुःखी को देखता तो उसे कुछ न कुछ देता । वे उसकी प्रशंसा करते । ललितांगकुमार का एक मित्र था सज्जन । पर वह ललितांगकुमार की प्रशंसा सुनकर मन ही मन जलता था । एक बार ललितांग कुमार का जन्मोत्सव आया । राजा ने उसे राजसभा में एक हार दिया। हार लेकर जब वह अपने महल की ओर आ रहा था तब एक याचक उसके पास आया और कुछ मांगने लगा । ललितांग कुमार ने उसे वह हार दे दिया । सज्जन ने अपनी आंखों से यह देख लिया । उसने राजा से इसकी शिकायत की। राजा ने ललितांगकुमार को बुलाया और उसे इस प्रकार से दान देने की मना की । ललितांगकुमार तब से आये हुए याचकों में कुछ को दान देता और कुछ को नहीं देता । एक दिन एक याचक को ललितांगकुमार ने कुछ नहीं दिया । तब उसने उससे कहा - कुमार ! तुम तो पारस-रत्न तुल्य हो । फिर क्यों कृपणता दिखाते हो ? उदारता से ही लक्ष्मी प्राप्त होती है । ललितांगकुमार को उसकी यह बात चुभ गई । उसने पुनः सबको देना शुरू कर दिया । सज्जन ने राजा से इसकी शिकायत की। अपने आदेश के उल्लंघन होने से राजा कुपित हो गया । उसने ललितांगकुमार को बुलाया और कठोर आदेश देते हुए कहाया तो देना बंद कर दो अन्यथा सूर्योदय से पूर्व मेरे नगर से निकल जाओ । पिता के कठोर आदेश को सुनकर ललितांगकुमार अपने महल में आ गया । उसके मन में ऊहापोह होने लगा । आखिर उसने नगर को छोड़ने का निर्णय ले लिया । सूर्योदय के पूर्व ही कुछ आभूषण, पाथेय और घोड़ा लेकर वह नगर से रवाना हो गया । सज्जन को राजा के आदेश का पता चला । उसने सोचा - ललितांगकुमार नगर छोड़ देगा किंतु देना नहीं छोड़ेगा । उसने भी उसके साथ चलने का विचार किया और नगर के बाहर छिप कर बैठ गया । जब ललितांगकुमार उधर से गुजरा तब उसने सज्जन को देखा । उसने साश्चर्य आने का कारण पूछा। सज्जन ने कपटपूर्वक कहामैं भी तुम्हारे साथ देशाटन करना चाहता हूं । ललितांगकुमार का हृदय सरल था पर सज्जन का मायायुक्त । दोनों आगे चले । ललितांगकुमार ने सज्जन से कहा – तुम कोई बात छेड़ो जिससे मार्ग सज्जन ने पूछा – इस संसार में सुखी कौन होता है,
सुगमतापूर्वक कट जाये । धार्मिक या अधार्मिक ? -