________________
प्रथम सर्ग
मंगलाचरण
१. मैं विघ्ननाशक, शक्तिमान्, तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक दीपासुत श्री भिक्षु स्वामी का मन में ध्यान कर सुबाहुकुमार नामक काव्य की रचना करता हूं ।
२. दान, शील, तप और भाव-ये चार मोक्ष के मार्ग हैं। दान से अनेक मनुष्यों ने भव-समुद्र को पार किया है।
३. उनमें एक सुबाहुकुमार भी है। उसका रम्य चरित्र ग्रहण कर मैं प्राकृत भाषा में अपने काव्य का निर्माण करता हूं ।
१. प्राचीन काल में इस भारतवर्ष में हस्तिशीर्ष नामक एक नगर था । वहां राजा अदीनशत्रु सुखपूर्वक राज्य करता था ।
२. उसके धारिणीप्रमुख एक हजार रानियां थीं । वे सभी नम्र, कुलीन और राजा के इंगित का अनुसरण करने वाली थीं ।
३. धारिणी की कुक्षि से एक पुण्यवान् पुत्र उत्पन्न हुआ । राजा ने उसका नाम सुबाहुकुमार रखा ।
४. राजा ने उसका पालन करने के लिए पांच निपुण धायमाताओं को रखा । उनके संरक्षण में वह शनैः-शनै बढ़ने लगा ।
५. जब वह पढ़ने योग्य हुआ तब राजा ने उसे पढने के लिए गुरु के समीप में भेजा। क्योंकि ज्ञान तीसरा नेत्र है ।
६. वह सर्वप्रिय, इष्ट, कांत, मनोज्ञ, मनाम, सुभग, प्रियदर्शन, सौम्य और सुरूप था ।
७. वह विनम्रभाव से गुरु के पास में ज्ञान प्राप्त करने लगा । विनीत ही गुरु के समीप ज्ञान प्राप्त करता है ।