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कथावस्तु
सुबाहुकुमार हस्तिशीर्षनगर के राजा अदीनशत्रु का पुत्र था। वह सर्वप्रिय, इष्ट, कांत, मनोज्ञ, मनाम, सुभग, प्रियदर्शन, सौम्य और सुरूप था। जब वह यौवनावस्था को प्राप्त हुआ तब पांच सौ कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ। वह उनके साथ पंक में कमल की तरह रहने लगा।
एक बार हस्तिशीर्षनगर में भगवान् महावीर का आगमन हुआ । जनता भगवान् के दर्शनार्थ गई। राजा अदीनशत्रु भी सपरिवार गया । भगवान् ने धर्मोपदेश सुनाया। जनता ने यथाशक्ति नियम ग्रहण किये। सुबाहुकुमार ने भगवान् से कहा-भंते ! मैं आपके समीप अनगार धर्म स्वीकार करने में असमर्थ हूं, अतः द्वादशविध अगारधर्म (गृहस्थ धर्म) स्वीकार करना चाहता हूं । भगवान् ने कहा-अहासुहं देवाणु प्पिया ! मा पडिबंधं करेह-जैसा तुम्हें सुख हो उसमें विलंब मत करो।
सुबाहुकुमार भगवान् से अगार धर्म स्वीकार कर अपने महलों में आ गया। उसकी ऋद्धि देखकर गणधर गौतम ने भगवान् से पूछा-भंते ! यह सर्वप्रिय और मनोज्ञ कैसे हुआ है ? यह पूर्वभव में कौन था ? इसने कौन-सा ऐसा कर्म किया था जिससे इस प्रकार की मानुषिकी ऋद्धि प्राप्त की है ? तब भगवान् ने उसके पूर्वभव का वर्णन करते हुए सुमुख गाथापति के जीवन का वर्णन किया। सुबाहुकुमार के पूर्वभव को सुनकर गणधर गौतम ने पूछा- क्या यह आपके पास प्रव्रज्या ग्रहण करेगा ? भगवान् ने कहा-हां । कालान्तर में भगवान महावीर ने हस्तिशीर्ष नगर से विहार कर दिया। सुबाहुकुमार अगारधर्म का पालन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। एक बार मध्यरात्रि में धर्मजागरणा करते हुए उसके मन में विचार आया -यदि भगवान् महावीर यहां आये तो मैं उनसे प्रव्रज्या ग्रहण कर लूं । भगवान् ने अपने ज्ञानबल से उसके मानसिक विचार जान लिये। ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए वे पुनः हस्तिशीर्ष नगर आये। जनता भगवान् के दर्शनार्थ गई। सुबाहुकुमार भी गया। भगवान् ने धर्मोपदेश सुनाया। प्रवचनोपरान्त सुबाहुकुमार ने भगवान् से निवेदन कियामैं आपके पास प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूं । भगवान् ने कहा-अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह ।
सुबाहुकुमार अपने महलों में आया । उसने माता-पिता के समक्ष