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________________ । 68 में "मेरी भावना' शीर्षक के अन्तर्गत सुखी संसार की कल्पना की है । इससे हमें ग्रन्थकार की उदारवादी मनोवृत्ति और काव्य की रचना के प्रयोजन का भी आभास होता है । विषय वस्तु - प्रस्तुत कृति में आद्योपान्त सम्यक्त्व का विवेचन है, आत्मा की शुद्ध अवस्था का सर्वज्ञता "सम्यक्त्व का विवेचन है -सम्यक्त्व सूर्य के उदित होने पर मिथ्यात्वरूपी अज्ञान रात्रि स्वयमेव विलीन हो जाती है । समयक्त्व के तीन भेद हैं- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आत्मा की इसके विपरीत अवस्थ (अशुद्ध) मिथ्यात्व" कहलाती है । वस्तु के दो रूप है - चेतन और अचेतन । यह आत्मा जिसे जीव कहते हैं, चेतन है । अचेतन के पाँच भेद हैं - धर्म - अधर्म, आकाश, काल अमूर्त और पुद्गल मूर्त है। जीव और पुद्गल की गति में सहायक द्रव्य को धर्म द्रव्य कहते हैं। जो इन दोनों की स्थति में जो सहायक होता, उसे अधर्म कहते हैं । सब पदार्थों का आश्रयभूत स्थान आकाश है। वस्तुओं में परिवर्तन करने की शक्ति ही काल है । पुद्गल द्रव्य भिन्न-भिन्न अणुरूप अनन्तानन्त हैं, जो पुद्गलाणु अपने स्निग्ध और रूक्षगुण की विशेषता से एक दूसरे से मिलकर स्कन्धरूप हो जाते हैं । इस अपेक्षा से पुद्गल द्रव्य भी बहुप्रदेशी ठहरता है । - अपने कर्तव्य के विषय में विचार करना कर्मचेतना या लब्धि कहलाता है । यह लब्धि देशना, विशुद्धि प्रायोगिका और काल-नामक चार प्रकार की है । गुरु के सुदपदेश को रुचिपूर्वक ग्रहण करना देशनालब्धि है । दुःख से मुक्त होने के लिए कर्मचेष्टा से परे होने की विचारधारा का पल्लवन एवं उससे जीव के चित्त में निर्मलता का आना विशुद्धिलब्धि है । इस विचार से जीव के पूर्वोपार्जित कर्म कमजोर होकर सत्तर कोडाकोड़ी सागर प्रमाण से घटकर अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण रह जाते हैं और अणुमात्र भी कम हो जाता है इससे आगे के बन्धन वाले कर्मों की स्थिति भी अन्त: कोड़ाकोड़ी सागर से अधिक नहीं होती इसी परिस्थिति को प्रायोगिकालब्धि कहते हैं । अनादिकाल से मोहनिद्रा में सोये हुए संसारी जीव के जाग्रत होने का समय काललब्धि के अन्तर्गत आता है । उपर्युक्त लब्धियों से व्यक्ति सुविधापूर्वक सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है, इसके तीन रूप हैं - अधःकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इनमें आत्मा निर्मल, निर्मलतर और निर्मलतम होती है, कहने का अभिप्राय यह कि जीव लब्धियों के माध्यम से अपने कर्मों का उपशमन करके सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । ऐसा पुरुष देव. विद्याधर का जन्म एवं मोक्ष की प्राप्ति करता है । इसके पश्चात सम्यग्दृष्टि पुरुष की विचारधारा, गुण, प्रभाव आदि का विवेचन हुआ है । सम्यग्दृष्टि के गुणों में वात्सल्य धर्मप्रभावना, त्याग और सन्तोष सर्वोपरि है इन्हीं गुणों की व्यवस्था सम्यक्त्व है और बिगड़ी हुई दशा मिथ्यात्व है । ग्रन्थकार ने सम्यग्दृष्टि पुरुषों के लिए कतिपय कर्तव्य निर्देशित भी किये हैं । तत्पश्चात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र के स्वरूप, अङ्गों, माहात्म्य आदि का विस्तृत विवेचन किया है । इस ग्रन्थ में मिथ्यादृष्टि और मिथ्यात्व की असारता और हीनता का निरूपण भी हुआ है। इसके साथ ही आत्मा और शरीर से सम्बन्धित भेदविज्ञान, आत्मा का अवस्थाएँ (बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा) ज्ञान-अज्ञान गुण स्थान, निक्षेप कर्म के भेद, प्रभेदों क भी पर्याप्त प्रतिपादन हुआ है ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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