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का आभास हो जाता है । 16वीं शती में ही कृष्ण कवि ने " मन्दारमरन्द चम्पू" का सृजन किया । इसमें गन्धर्व दम्पती की कथा का आश्रय लेकर नायक, गुण, दोष, अलङ्कार, छन्दों आदि के लक्षण और उदाहरण निदर्शित हैं अत: यह एक लक्षण ग्रन्थ ही है । पद्यनाम मिश्र के वीरभद्रदेव चम्पू" में तत्कालीन रीवा राज्य का सजीव चित्रण विश्लेषित है । कवि नारायण भट्ट ने लगभग 15 चम्पू कृतियाँ संस्कृत साहित्य को प्रदान की हैं जिनमें "स्वाहा सुधाकर " चम्पू और 'मत्स्यावतार' प्रबन्ध चम्पू अत्यन्त विख्यात हैं ।
आनन्द
17वीं शताब्दी में जीव गोस्वामी का गोपाल चम्पू" श्रीकृष्ण के समग्र लोकरञ्जक चरित्र का मार्मिक विवरण प्रकट करता है । ओरछा निवासी कवि मित्र मिश्र ने अपने " कन्द चम्पू में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का अत्यन्त सजीव और ओजस्वी वर्णन किया है । महाप्रभु चैतन्य के शिष्य रघुनाथ दास का " मुक्ता चरित्र" भी कृष्ण की लीलाओं से सम्बद्ध चम्पूकाव्य है । इसमें सत्य भामा की अपेक्षा राधा के प्रति कृष्ण के स्वतन्त्र प्रेम की उत्कृष्टता निरुपित की गयी है । नीलकण्ठ दीक्षित कृत "नीलकण्ठ विजय चम्पू" 5 आश्वासों में सम्पन्न समुद्र मन्थन और शिव द्वारा विषपान से सम्बद्ध वर्ण्य विषय पर विरचित है । इस ग्रन्थ में वक्रोक्ति अलङ्कार के माध्यम से विलासी जीवन पर कठोरव्यङ्ग्य किया गया है एवं भावों की सूक्ष्मता के साथ अभिव्यक्ति हुई है । चक्रकवि ने महाभारत के आदि पर्व की कथा पर आश्रित "द्रौपदी परिणय चम्पू" की रचना की है । इनकी अन्य चम्पू कोटि की रचनाएँ भी हैं । परवर्ती युग में हमें " उत्तर चम्पू" ग्रन्थों की बहुलता दिखाई पड़ती है । उत्तर राम चरित के कथानक से सम्बद्ध यतिराज, शङ्कराचार्य, हरिहरानन्द, वेंकटाध्वरि आदि कवियों ने “उत्तर चम्पू" ग्रन्थों का प्रतिपादन किया है ।
वर की सर्वश्रेष्ठ कृति 'विश्वगुणादर्श चम्पू 44 है । इसमें दो गन्धर्वों द्वारा अपनेअपने विमानों में चढ़कर भारत के विभिन्न तीर्थ स्थलों का भ्रमण करना और वहां के गुण दोषों का क्रमशः वर्णन करना प्रस्तुत किया गया है । अतः भारत की भौगोलिक झांकी कवि ने नवीन शैली के माध्यम से उपस्थित की है ।
इनके दूसरे चम्पू काव्य श्री निवास चम्पू के 10 अध्यायों में तिरुमलाइ में विद्यमान देवता की प्रशस्ति है । " वरदाभ्युदय चम्पू" में कांजीवरम् मन्दिर का महत्त्व वर्णित है। 18वीं शती में कवि शङ्कर ने शङ्कर चेतोविलास चम्पू" काशी नरेश चेतसिंह की प्रशंसा में लिखा है । “गङ्गावतरण" कवि शङ्कर का 7 उच्छ्वासों में निबद्ध दूसरा चम्पू ग्रन्थ है । वाणेश्वर विद्यालंकार ने “चित्र चम्पू' 45 में वैष्णव भावों की अभिव्यक्ति की है। यह ग्रन्थ बर्दवान के महाराज चित्रसेन के आदेश पर लिखा गया है । विश्वनाथ सिंह ने 8 परिच्छेदों में " रामचन्द्र चम्पू का सृजन किया है । राजा सुदर्शन की विख्यात कथा कृष्णानन्द कवीन्द्र के सुदर्शन चम्पू काव्यम् में आबद्ध" सदाशिव शास्त्री मुसलगांव कर ने सिंधिया नरेशों की प्रशंसा " शिन्दे विजय विलास चम्पू" का प्रणयन किया । यह ऐतिहासिक ग्रन्थ है ।
संस्कृत साहित्य में चम्पू शैली पर निर्मित काव्यों की विपुलता है । 19वीं शताब्दी के पश्चात् की बहुत सी चम्पू कृतियाँ अप्रकाशित ही है । रामायण महाभारत एवं पुराणों के कथानकों को आधार बनाकर अगणित चम्पू लिखे गये हैं ।
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