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________________ 296 "भाऽतुलाभारतस्य" प्रस्तुत पंक्ति भी समस्या पूर्ति के रूप में सरल, संस्कृत श्लोकों में प्रयुक्त की है । "वर्णी गणेशी जयताज्जगत्याम्" उक्त शीर्षक रचनों में सन्त गणेशप्रसाद वर्णी के बहुमुखी लोकत्तर व्यक्तित्व और कृतित्व का सङ्कीर्तन भावपूर्ण सरस, रोचक शैली में किया गया है। संस्कृत गद्य लेखन में भी आप निष्णात हैं । उपर्युक्त सभी रचनाएँ शांतरस प्रधान हैं । इनमें प्रसादगुण और वैदर्भी रीति का आद्योपान्त प्रभाव अङ्कित है । उक्त रचनाओं की भाषा सरल, बोधगम्य, परिष्कृत संस्कृत है । रचनाकार के चिन्तन, अनुभूति, एवं दृष्टिकोण की विवेचना उक्त रचनाओं में पदे-पदे अभिव्यंजित है । पं. जी अपने गुरुवरों से पूर्णत: प्रभावित हुए हैं। वास्तव में डॉ. (पं.) दयाचन्द्र जी साहित्यचार्य बीसवीं शताब्दी के मूर्धन्य साहित्यकार हैं । भाव और भाषा में समन्वय उनके काव्य कौशल का परिचायक है आपने संस्कृत के प्रसिद्ध छंदो का प्रयोग किया है । ८. पं. जवाहर लाल "सिद्धान्तशास्त्री" के काव्य : जिनोपदेश "जिनोपदेश" की विषयवस्तु डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य कृत "सम्यकत्व चिन्तामणि की विषयवस्तु से पूर्णतः मिलती है । सम्यक्त्व चिन्तामणि विशाल ग्रन्थ है, जिसमें जैनदर्शन के प्रत्येक सिद्धान्त की विस्तृत व्याख्या की गई है। किन्तु इसमें सिद्धान्तों का संक्षिप्त प्रतिपादन हुआ है । सम्यक्त्व चिन्तामणि में छन्दोवैविध्य एवं अलंकारों का बाहुल्य है। किन्तु प्रस्तुत रचना में आद्योपान्त अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग है उपमा, अनुप्रासादि प्रमुख अलङ्कार निदर्शित हैं । इस प्रकार शतक काव्य होने के कारण विषय वस्तु का संक्षिप्त विवेचन हुआ है, प्रत्येक सिद्धांत की परिभाषा, भेद, स्वरूप आदि का विवेचन है । किन्तु प्राचीन ग्रन्थों सर्वार्थसिद्धि आदि पर ही बीसवीं शती के जैनदर्शन के परिपूर्ण ग्रन्थ प्रभावित (आश्रित) हैं । इसके साथ ही जिनोपदेश की विषयसामग्री का साम्य आचार्य ज्ञानसागर कृत "सम्यक्त्वसार शतकम् से भी है । परन्तु भावपक्ष में साम्यता होते हुए भी कलापक्ष में भिन्नता है। "सम्यक्त्व चिन्तामणि" की वैदर्भी प्रधान शैली जिनोपदेश में भी प्रतिबिम्बित है यही शैली "सम्यक्त्वसार शतकम् में विद्यामान है । इस प्रकार भाव, भाषा, शैली की दृष्टि से जिनोपदेश अन्य जैनदर्शन, सिद्धान्तों के विशेषज्ञों की कृतियों से प्रभावित है । "पद्मप्रभस्तवनम्" "पद्मप्रभस्तवनम्" स्तोत्र काव्य भी बीसवीं शती के अन्य जैन कवियों कृत स्तोत्र काव्यों से समानता रखता है-पं. भुवनेन्द्र कुमार जैन कृत श्री 108 श्री आचार्य विद्यासागर स्तवनम्, पं. मूलचन्द्र शास्त्री कृत आचार्य 108 श्री ज्ञानसागर संस्तुतिः इसी परम्परा की श्रृंखला में गणनीय हैं । इन स्तोत्रों में परस्पर भाव, भाषा, शैली का अद्भुत सामञ्जस्य दृष्टिगोचर होता है । इस प्रकार उक्त स्तोत्रों में सङ्गीतात्मकता, मधुरता के साथ ही आराध्य के प्रति कवियों की तन्मयता, तल्लीनता हमें भावविभोर करती है । उनका यह अनन्य प्रेम सूरदास के चरितनायक कृष्ण और तुलसीदास के राम जैसा ही कहा जा सकता है । पद्मप्रभस्तवनम्
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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