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________________ 290 यमकादि शब्दालङ्कारों का समन्वित प्रयोग हुआ है । भाषा सरल, सरस, प्रसादगुण पूर्ण और वैदर्भी शैली है । भावानुकूल अभिव्यञ्जना की गई है । "श्रावक धर्मप्रदीप" में श्रावकों के आचार विचारों का प्रस्तुतीकरण हुआ है । श्रावकों की परिभाषा, उनके भेद, क्रियाकलाप, कर्तव्यादि का निरूपण है ।। यह ग्रन्थ द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की रचना है इसमें विश्वशान्ति की कामना रचनाकार ने की है। दुष्टस्य रोधकरणं सुजनस्य रक्षा, सम्पूर्ण विश्व निलये सुख शान्ति हेतोः ।' कवि ने पराधीनता के कष्टों से अवगत कराया है। जिससे प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार ब्रिटिश साम्राज्य में हुए दुराचारों में पीड़ित मानवता एवं शोषण के कारण हार्दिक रूप से दु:खी था । इस ग्रन्थ पर तत्कालीन परिस्थितियों और सम-सामायिक प्रवृत्तियों की छाप अंकित है। प्रश्नोत्तर शैली में निबद्ध यह रचना प्रसादगुण अभिधा वृत्ति, सरल संस्कृत शब्दावली से सुसज्जित है । इसी कारण "श्रावक धर्म प्रदीप" जन-जन का प्रिय ग्रन्थ है। सुवर्ण-सूत्रम् केवल 4 पद्यों में निबद्ध विश्वधर्म के प्रचार-प्रसार हेतु रचितकाव्य है। इसमें जैनधर्म की महत्ता का विवेचन है और उपजाति छन्द में बोधगम्य सरल संस्कृत के माध्यम से भावों, को प्रकट किया है । आचार्य श्री कुन्थुसागर जी की रचनाओं में मानव मनोविज्ञान, भारतीय संस्कृति सभ्यता, शरीर और आत्मा का समीचीन निरूपण है । अन्यसिद्धान्तों पर यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया गया है। रचनाकार का सुदीर्घकालीन अनुभव ग्रन्थों में पदे-पदे समाहित है । चित्रालङ्कारों का अभाव है । सुस्पष्ट स्वतन्त्र मौलिक चिन्तन को काव्यत्त्व से सुसिज्जत करके प्रस्तुत किया गया है। ४. बीसवीं शती के अन्य साधु-साध्वियों की रचनाएँ - बीसवीं शताब्दी में उक्त मुनियों के अतिरिक्त संस्कृत में स्फुट रचनाएँ और स्तोत्रादि | का प्रणयन आचार्य अजित सागरजी महाराज, आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी, आर्यिका ज्ञानमती माताजी, आर्यिका विशुद्धमती माताजी, आर्यिका जिनमती माता जी प्रभृति अनेक साधु-साध्वियों ने किया है । इनकी रचनाओं में आद्योपान्त शान्तरस की प्रस्तुति है । प्रसादगुण पूर्ण सरस शब्दावली में अपने हृदयस्थ भावों को साधुवृन्दों ने आचार्यों की श्रद्धांजलि रूप में प्रस्तुत किया है । इनसे संस्कृत के स्तोत्रककाव्यों और स्फुट काव्यों की परम्परा में श्रीवृद्धि हुई है और निरन्तर इस परम्परा में जैन साधु-साध्वियाँ सन्नद्ध है । उनकी वाणी से निःसृत भगवती वाग्देवी के भव्य भंडार की महिमा का संकीर्तन हो रहा है। इन स्फुट काव्यकृतियों के मूल्याङ्कन क्रम में हम कह सकते हैं कि सृजन से संस्कृति साहित्य की अभिवृद्धि हुई है। इनकी कृतियों में काव्यशास्त्र, भाषाशास्त्र के सभी तत्त्व विद्यमान है ।
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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