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" दयोदय चम्पू" में एक हिंसक के हृदय परिवर्तन की कहानी को मुहावरेदार भाषा में निबद्ध किया है । इसमें अन्तर्द्वन्द्व और संवादों में सजीवता है । अहिंसा की महत्ता प्रतिपादित की है- अपने कथ्य के समर्थन में दयोदयकार ने विभिन्न शास्त्रों, पुराणों, नीतिग्रन्थों काव्यों आदि से उद्धरण देकर और अनेक उपकथाएँ जोड़कर प्राचीन और अर्वाचीन संस्कृति को समन्वित किया है । धीवरी - धीवर के तर्क-वितर्कों में संवाद शैली की रोचकता विद्यमान है । इस चम्पू में नल चम्पू के समान बौद्धिक विलास नहीं है।
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'सम्यक्त्व सार शतकम्" दार्शनिक विषय पर रचित काव्य ग्रन्थ है। इसमें जैन दर्शन के आधारभूत रत्नत्रय एवं चेतन-अचेतन आदि का विवेचन प्रसाद-गुण- पूर्ण वेदर्भी शैली में हुआ है ।
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आचार्य श्री की अन्य रचनाओं में भी साहित्य, दर्शन, अध्यात्म आदि का सम्पुट विद्यमान है । आचार्य श्री ने अपने ग्रन्थों में अन्त्यानुप्रास प्रधान पद्य रचना का नूतन प्रयोग करके प्राचीन कवियों से अपनी भिन्नता प्रकट की है । आचार्य श्री के काव्यों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि आपके काव्यों में जहाँ एक ओर संस्कृत साहित्य के कवियों का प्रभाव है वहीं दूसरी और आपके स्वतन्त्र चिन्तन और लेखन शैली में नवीनता है । संस्कृत काव्य की प्रायः सभी विधाओं को लेखन कला का आधार बनाकर अपनी उत्कृष्ट कृतित्व शैली का परिचय दिया है - इनकी रचनाओं का विद्वानों में समादर इस तथ्य का द्योतक है कि उनकी रचनाएँ विश्वसाहित्य की अमूल्य धरोहर हैं । इसमें आदर्श और यथार्थ का सुमधुर समन्वय है । काव्यशास्त्रीय एवं व्याकरणात्मक सभी बिन्दुओं को प्रश्रय मिला है ।
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२. आचार्य विद्यासागर जी महाराज के काव्य
आचार्य विद्यासागर जी मुनि महाराज ने दार्शनिक आध्यात्मिक विषयों पर काव्य रचनाएँ की हैं। उनके काव्यों में मौलिक चिन्तन समाहित है। और भाव पक्ष के साथ ही साथ कला पक्ष भी प्रभावशाली बन पड़ा है।
आचार्य श्री ने संस्कृत काव्यों में अधिकांशतः शतक काव्यों का प्रणयन किया हैसंस्कृत साहित्य में शतक साहित्य गीति काव्य के अन्तर्गत समाविष्ट है । शतक की परिधि में ही रचनाकार अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है ।
इन्होंने निरंजन शतकम्, भावनाशतकम्, श्रमणशतकम्, सुनीतिशतकम्, परीषह जय शतकम् के माध्यम से अपने कथ्य को अभिव्यंचित किया है।
जहाँ एक ओर " निरञ्जन शतकम्" में अतीत, अनागत और वर्तमान की निरञ्जन ( विकार रहित चेतना) आत्माओं का स्तवन किया है वहीं दूसरी ओर "भावना शतकम्" के माध्यम से तीर्थङ्करत्व की कारणभूत षोडश भावनाओं की विशद व्याख्या प्रस्तुत की है और इन भावनाओं के सतत चिन्तन से तीर्थङ्करत्व की प्राप्ति संभव सिद्ध की है।" श्रमणशतकम् " में श्रमणों की चर्या का काव्यात्मक शैली में निदर्शन है। श्रमणों की विशेषताओं का प्रकाशन भी किया है । “सुनीतिशतकम् " सुन्दर नीतियों का अनुपम संग्रह ही है । इस ग्रन्थ में उपजाति वृत्त में निबद्ध अध्यात्म और दर्शन का नीतिगत निरूपण है । " परीषह जय शतकम् " में दिगम्बर जैन परम्परा में मान्य मुनियों के बाईस परीषहों और उन पर विजय प्राप्त करने के उपायों का काव्यात्मक वर्णन है ।