SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 265 अर्थात् - जो अंशों (स्वभाव) या विभाव पर्यायों को प्राप्त होता है, होवेगा और होचुका है, उसे द्रव्य या वस्तु वा सत् या अन्वय अथवा विधि कहते हैं । प्रस्तुत उदाहरण में सन्देह अलङ्कार की प्रतीती या, वा, अथवा आदि वाचक शब्दों से होती है । विरोधाभास इस अलङ्कार के दर्शन पद्मप्रभस्तवनम् के अनेक पद्यों में होते हैं । क्योंकि इस ग्रन्थ में पद्मप्रभु को परस्पर विरोधाभासी विशेषणों एवं संज्ञाओं से सम्बोधित किया गया है और फिर व्याख्या में उनका समाधान भी किया है । एक पद्य उदाहरण के रूप द्रष्टव्य है - शुद्धो विकल्पविदुरोऽपि हि निर्विकल्पो, लोकेश्वरः परतरो जन सेवकोऽपि । विज्ञान-धी-धन-युतः खलु निर्धनोऽपि, त्वन्नाम नाथ ! जननन्दन ! काम हास्ति ।।43 भावार्थ यह है कि - नाथ परमशुद्ध आप समस्त विकल्पों के ज्ञाता होते हुए भी निर्विकल्प हैं । आप विश्व में सर्वप्रधान होते हुए भी जनसेवक भी हो और हे जननन्दन! आप आत्मविज्ञान रूप बुद्धिधन से युक्त होते हुए भी निर्धन हैं । इस प्रकार परस्पर विरोधाभास पदों में है, किन्तु पद्मप्रभु के बहुमुखी व्यक्तित्व, माहात्म्य आदि में इसका परिहार हो जाता है । अतिशयोक्ति इस अलङ्कार का अत्यल्प प्रयोग पद्मप्रभस्तवनम् में है, किन्तु जिनोपदेश अध्यात्मिक कृति हैं । उसमें इसके विद्यमान होने का अवसर ही नहीं है। "पद्मप्रभुस्तवनम्" में अतिशयोक्ति अलङ्कार की झलक वहाँ मिलने लगती है, जहाँ पद्मप्रभु को कवि ने इन्द्रादि देवताओं से श्रेष्ठ प्रतिपादित करते हैं - उनकी लोकोत्तर महिमा का भावोद्रेकमय विवेचन भी सातिशय हैं- पद्मप्रभु को नारायण, कामदेव, चक्रवर्ती से श्रेष्ठ अधोलिखित पद्य में निरूपित करते हैं - पद्मस्थितोऽसि जगतो त्वमतो हि भिन्नो, नारायणोऽपि च विभोऽनु महामुनि त्वाम् । श्री मन्मादिरपि ! नाथ तवानुसारी, लोकेश ! कामद सुधी सुकृतिन्नमस्ते ॥44 इस प्रकार प्रस्तुत पद्यों में अन्य देवों, कामदेव जैसे प्रसिद्ध उपमानों को तिरस्कृत सिद्ध करने से प्रतीप अलङ्कार का आगमन भी हुआ है । कवि की भावुकता का परिचय मिलता है। भाषा शास्त्री जी ने काव्य रचना करने में अपने नूतन और मौलिक प्रयोगों से पाठकों को प्रभावित किया है । संस्कृत भाषा पर आपका एकाधिकार है । जिनोपदेश के शुष्क, गूढ़ और दार्शनिक सिद्धान्तों को मनोरम, सुकुमार, बोधगम्य, शुद्ध संस्कृत के माध्यम से जनोपयोगी बनाना आपके काव्य-कौशल, शब्दचयन एवं भाषा पर गहरा आधिपत्य की प्रामाणिकता है। आपकी भाषा भावों को सरलता के साथ अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं। आपके ग्रन्थों में प्राप्त भाषा, बोधगम्य, गतिशील, सजीव एवं कहीं-कहीं अलङ्कत भी हैं । जिनोपदेश में जटिल विषयों में भी भाषा सारल्य हैं 45
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy