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________________ 263 इसमें माधुर्य और प्रसादगुण की छटा विद्यमान हैं । 'गणेश स्तुतिः 44 इसमें सन्त गणेश प्रसाद वर्णी जी की स्तुति शार्दूलविक्रीडित छन्दों में निबद्ध हैं। अनुष्टुप् छन्द में रचनाकार ने अन्तिम पद्य में अपना परिचय देकर रचना का समापन कर दिया है! प्रसाद माधुर्य गुणों की छटा, अनुप्रास, उपमा अलङ्कारों के सङ्गम और बोधगम्य तुकान्त सरल संस्कृत के सहयोग से रचना आकर्षक बन गयी है । भावों में सजीवता है । शास्त्री की वर्णनात्मक शैली ने रचना में स्फूर्ति उत्पन्न कर दी है । कवि के भाव उत्कृष्ट, सशक्त और प्रभावशाली है, वैदर्भी रीति और माधुर्य गुण के कारण रचना अत्यन्त रोचक हैं । पं. मूलचन्द्र जी शास्त्री की अन्य रचनाओं अभिनव स्तोत्रम्, वर्धमान चम्पू आदि में भी उक्त सभी साहित्यिक एवं शैलीगत विशेषताएँ विद्यमान हैं । पं. जवाहर लाल शास्त्री के प्रमुख ग्रन्थों का साहित्यिक एवं शैलीगत अध्ययन बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में पं. जवाहर लाल शास्त्री का कृतित्व प्रकाश में आया। आपके द्वारा विरचित जिनोपदेश, पद्मप्रभस्तवनम् सहित अनेक ग्रन्थ साहित्यक तत्त्वों से मंडित हैं । रस शास्त्री जी के काव्य शान्तरस से ओत-प्रोत हैं। जिनोपदेश जैनदर्शन से ओत-प्रोत रचना होने के कारण शान्तरस प्रधान है । और पद्मप्रभस्तवनम् 34 में भी आद्योपान्त शांतरस की प्राप्ति होती है, क्योंकि कवि की अपने आराध्य के प्रति अनन्य भक्ति भावना है । यहाँ उदाहरणार्थ एक पद्य प्रस्तुत है इसमें मोक्ष का स्वरूप प्रतिपादित है मोक्ष्यते चास्यते येनाऽसन मात्रं स वा भवेत् । सर्वकर्मक्षयो मोक्षो रागादि नाशनं स वा 11435 अर्थात् कर्मों का क्षय और रागादि भावों की निवृत्ति मोक्ष है । जीव का मोक्ष के पश्चात् उस मुक्त परमात्मा के लिए अनन्तगुण युक्त एवं सांसारिक दुःखों से मुक्त कहते हैं। यहाँ रस का आश्रय और आलम्बन पाठक और कर्मक्षयवाला जीव है । रागादि भावों की निरसारता, भोगों के प्रति अरुचि, उद्दीपन विभाव है, कर्मों का क्षीण होना, आत्मचिन्तन में रमण अनुभाव हैं तथा निर्वेद आदि संचारी भाव है । इन सबके संयोग से शान्तरस पुष्ट हुआ है । उक्त रचनाओं में अन्य रस • प्रयोग नहीं मिलता । छन्द पं. जवाहरलाल शास्त्री का सर्वाधिक प्रिय छन्द अनुष्टुप् है । यह छन्द जिनोपदेश के समस्त श्लोकों में प्रयुक्त हुआ है । तथा पद्मप्रभस्तवनम् " के अन्तिम तीन पद्यों में भी अनुष्टुप छन्द का प्रयोग मिलता है । उदाहरणार्थ अद्योलिखित पद्य द्रष्टव्य है - 44 'प्रणमामि महावीरमनन्तांश्च मुनीश्वरान्, जिनवाणीं तथा वन्दे सर्वलोकोपकारिणीम् ॥37 इसमें महावीर सहित जैनमुनियों की स्तुति की है, जिनकी वाणी लोकोपकार में सक्षम है । पद्मप्रभस्तवनम् में बसन्ततिलका छन्द का प्रयोग प्रचुरता से हुआ है : स्तुति के अन्तिम 3 पद्यों को छोड़कर सर्वत्र पद्यों में बसन्ततिलका छन्द प्रयुक्त किया है - एक पद्य निदर्शित है
SR No.006275
Book Title20 Vi Shatabdi Ke Jain Manishiyo Ka Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendrasinh Rajput
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages326
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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