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234 भर्तृहरि की नीतिशतकम् शैली के अनुरूप "सुनीतिशतकम्" की शैली में भी सहजता, सरलता के दर्शन होते हैं । यह शतक माधुर्यमण्डित और प्रसादगुण से परिपूर्ण है - शैली में सुबोधता पदे-पदे विद्यमान है । इस ग्रन्थ में वैदर्मी रीति का उपयोग आद्योपान्त किया गया है - इनके पद्यों में महाकवि कालिदास की शैली की स्पष्ट छाप अंकित है । सुकोमल पद शय्या से सुसज्जित एक पद्य द्रष्टव्य है -
विशेष सामान्य चित्तं सदस्त चितिद्वयेनाकलितं समं वै ।
एकेन पक्षेण न पक्षिणस्ते, समुत्पतन्तोऽत्र कदापि दृष्टाः ।। उक्त पद्य में दृष्टान्त शैली के दर्शन होते हैं ।
५. परिषहजय शतकम् "ज्ञानोदय' के नाम से प्रकाशित परीषह जय शतकम् का अनुशीलन करने यह कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ मनोवैज्ञानिक भावाभिव्यंजना का प्रतिनिधित्व करता है । इस शतक में बाईस परीषहों का सरस और सुरम्य चित्रण किया गया है । इसमें भाववली की क्रमबद्धता और प्रभावित करने वाली सहजता आद्योपान्त व्याप्त है । कविवर आचार्य श्री के भाव अल्प बुद्धिजीवी को भी निरन्तर साध्य (बोधगम्य) है । उनके भावों में कृत्रिमता का लेश भी नहीं, स्वाभाविकता और सहजता सर्वत्र समाविष्ट हुई है। उनका कवित्व काल्पनिक उड़ानों से पूर्णत: मुक्त है । उन्होंने यथार्थता के सांचे में ढले हुए और प्रसङ्गानुकूल शब्दों का चयन किया है।
परिषहजय शतकम् में भाषा का प्रभावशाली और मर्यादित प्रयोग है। भाषा में उच्चकोटि की संस्कृत है जिसे साधारण मनुष्य आत्मसात कर सकता है । संस्कृत के साथ ही तत्सम शब्दों की प्रचुरता परिलक्षित होती है । इस प्रकार परिष्कृत एवं श्रेष्ठ भाषा का मनोरम रूप ज्ञानोदय में मिलता है । भाषा के साहित्यिक परिवेष में आबद्ध उसका उज्ज्वल और सार्थक प्रयोग करना आचार्य श्री को स्वीकार है । अपनी सशक्त और भावानुकूल भाषा के माध्यम से उन्होंने सभी परिषहों का सजीव वर्णन किया है । शब्दावली में तुकान्तता आ गयी है जिससे पद्यों के प्रति सहृदयों को अत्यन्त आकर्षण होता है । यहाँ एक पद्य प्रस्तुत है - जिसमें भावसाम्य की मनोहर भाषा के द्वारा सफल अभिव्यंजना हुई है -
स्वर्णिम, सुरभित, सुभग, सौम्यतन सुरपुर में सुर सुख, उन्हें शीघ्र से मिलता शुचितम शाश्वत भास्वत शिवसुख है । संस्कृत पद्य भी - अनंघतां लघुनैति सुसङ्गता,
सुभगतां भगतां गत सङ्गताम्09 भाषा के समान ही शैली में भी एकात्मकता आ गयी है शैली के आधार पर ही किसी भी रचना की समीक्षा की जा सकती है । इसलिए परीषहजय शतक में भाषा और शैली की अवस्थिति पर दृष्टिपात करना आवश्यक है ।
आचार्य श्री द्वारा विरचित यह ग्रन्थ आलङ्कारिक और प्रसादगुणपूर्ण शैली में निबद्ध है । सहृदय को तन्मय कर देना माधुर्य गुण की पराकाष्ठा है । इसमें माधुर्य गुण के अनेक | उदाहरण विद्यमान हैं -