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________________ 1 संयोजित पुस्तकालय और स्वयं उनका वाङ्मयी कृतित्व अनेकानेक सागरमल के प्राज्ञ-पुनर्भव की सम्भावना को भी सुनिश्चित करते हैं प्रो. सागरमल जैन ने जैनागमीय धर्म, दर्शन, इतिहास, संस्कृति, कला और साहित्य के क्षेत्र में प्रभूत लेखन किया है । पुस्तकीय योजना में किए गये लेखन से उनके प्रकीर्ण लेखन कमतर महत्त्व के नहीं रहे हैं। किसी भी पुस्तकाकार लेखन में बहुत कुछ पादपूर्तिपरक हुआ करता है लेकिन निबन्धात्मक प्रकीर्ण लेखन अपनी प्रकृति में रचनात्मक अधिक होते हैं। यह एक विडम्बना से कम नहीं कि भारत के बौद्धिक मानस में पुस्तकाकार ज्ञान की गतिशीलता एवं प्रभावमत्ता निबन्धात्मक प्रकीर्ण लेखन की अपेक्षा अधिक होती है । इसमें दो राय नहीं है कि निबंध शैली के लेखन विशृंखलित हुआ करते हैं और सम्भवतः इसी कारण वैसे लेखन पाठक को उतना प्रभावित नहीं करते, परन्तु यदि एक व्यक्ति के द्वारा किसी विशेष क्षेत्र में लम्बे समय तक निबंध शैली में लेखन किया गया हो तो कालान्तर में उन्हें एक सघन और व्यापक अर्थान्वयन के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है । आज भी भारत में बहुत बड़े-बड़े विद्वानों का प्रकीर्ण लेखन स्मृतियों के गर्त में पड़ा हुआ है जिन्हें पुस्तकाकार रूप में प्रस्तुत करने की महती आवश्यकता है प्रस्तुत पुस्तक 'जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान' प्रो. सागरमल जैन के शोधपरक प्रकीर्ण निबंधों का एक ऐसा ही विशिष्ट संग्रह है । इसमें तत्त्वदर्शन, ज्ञानदर्शन, भाषादर्शन, अनेकान्तदर्शन और धर्मदर्शन से संबंधित वैसे गवेषणात्मक निबन्धों का चयन किया गया है जो भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शनों से संवाद करते हुए जैन धर्म और दर्शन के मूलगामी स्वरूप को उद्घाटित करते हैं। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में श्रमणपरम्परा के जीवन-दर्शन से संबंधित आलेख निवृत्तिवादी चिन्तन धारा के प्रवृत्तिमूलक मूल्यात्मक पक्ष को उजागर करते हैं । अवधेय है कि आधुनिक युग को ज्ञान के उत्पादन का अन्तरानुशासिक युग कहा जाता है, परन्तु इस युग में जैनागमीय धर्म
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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