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अपनाता है, उसका उत्तरदायित्व किस पर होगा ? वैयक्तिक विभिन्नताएँ ईश्वरेच्छा का परिणाम नहीं, वरन् व्यक्ति के अपने कृत्यों का परिणाम है। वर्तमान जीवन में जो भी क्षमता एवं अवसरों की सुविधा उसे अनुपलब्ध है और जिनके फलस्वरूप उसे नैतिक विकास का अवसर प्राप्त नहीं होता है, उनका कारण भी वह स्वयं ही है और उत्तरदायित्व भी उसी पर है I
नैतिक विकास केवल एक जन्म की साधना का परिणाम नहीं है, वरन् उसके पीछे जन्म-जन्मान्तर की साधना होती है । पुनर्जन्म का सिद्धान्त प्राणी को नैतिक विकास हेतु अनन्त अवसर प्रदान करता है । ब्रेडले नैतिक पूर्णता की उपलब्धि को अनन्त प्रक्रिया मानते हैं (एथिकलस्टडीज पृ. 313 ) । यदि नैतिकता आत्मपूर्णता एवं आत्म-साक्षात्कार की दिशा में सतत प्रक्रिया है, तो फिर बिना पुनर्जन्म के इस विकास की दिशा में आगे कैसे बढ़ा जा सकता है ? गीता ( 6/45) में भी नैतिक पूर्णता की उपलब्धि के लिए अनेक जन्मों की साधना आवश्यक मानी गयी है। डॉ. टाटिया भी लिखते हैं कि “यदि आध्यात्मिक पूर्णता (मुक्ति) एक तथ्य है, तो उसके साक्षात्कार के लिए अनेक जन्म आवश्यक हैं ( स्टडीज इन जैनफिलॉसफी पृ.22 ) ।”
...साथ ही आत्मा के बन्धन के कारण ही व्याख्या के लिए पुनर्जन्म की धारणा को स्वीकार करना होगा, क्योंकि वर्तमान बन्धन की अवस्था का कारण भूतकालीन जीवन में ही खोजा जा सकता है।
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जो दर्शन पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते, वे व्यक्ति के साथ समुचित न्याय नहीं करते । अपराध के लिये दण्ड आवश्यक है, लेकिन इसका अर्थ यह तो नहीं कि विकास या सुधार का अवसर ही समाप्त कर दिया जाये । जैन-दर्शन पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करके व्यक्ति को नैतिक विकास के अवसर प्रदान करता है तथा अपने को एक प्रगतिशील दर्शन सिद्ध करता है । पुनर्जन्म की धारणा दण्ड के सुधारवादी सिद्धान्त का समर्थन करती है, जबकि पुनर्जन्म को नहीं मानने वाली नैतिक विचारणाएँ दण्ड के बदला लेने के सिद्धान्त का समर्थन करती हैं, जो कि वर्तमान युग में एक परम्परागत, किन्तु अनुचित धारणा है ।
पुनर्जन्म के विरुद्ध यह भी तर्क दिया जाता है कि यदि वही आत्मा (चेतना) पुनर्जन्म ग्रहण करती है, तो फिर पूर्व जन्मों की स्मृति क्यों नहीं रहती है । स्मृति के अभाव में पुनर्जन्म को किस आधार पर माना जाये ? लेकिन यह तर्क उचित नहीं है, क्योंकि हम अक्सर देखते हैं कि हमें अपने वर्तमान जीवन की अनेक घटनाओं की भी स्मृति नहीं रहती । यदि हम वर्तमान जीवन के विस्मरित भाग को स्वीकार नहीं करते हैं, तो फिर केवल स्मरण के अभाव में पूर्व जन्मों की घटनाएँ भी
जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
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