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________________ भोक्तृत्व भी कर्मपुद्गलों से निर्मित शरीर से ही सम्भव है। कर्तृत्व और भोक्तृत्वदोनों ही शरीरयुक्त बद्धात्मा में पाये जाते हैं, मुक्तात्मा या शुद्धात्मा में नहीं। भोक्तृत्व वेदनीय कर्म के कारण ही सम्भव है। जैन-दर्शन आत्मा के भोक्तृत्व को भी सापेक्ष दृष्टि से शरीरयुक्त बद्धात्मा में स्वीकार करता है। 1. व्यावहारिक दृष्टि से शरीरयुक्त बद्धात्मा भोक्ता है। 2. अशुद्धनिश्चयनय या पर्यायदृष्टि से आत्मा अपनी मानसिक अनुभूतियों या मनोभावों का वेदक है। 3. परमार्थ-दृष्टि से आत्मा भोक्ता और वेदक नहीं, मात्र दृष्टा या साक्षीस्वरूप है (समयसार 81-92)। आत्मा में भोक्तृत्व मानना कर्म और उनके प्रतिफल के संयोग के लिए आवश्यक है। जो कर्ता है, वह अनिवार्य रूप से उनके फलों का भोक्ता भी है, अन्यथा कर्म और उसके फलभोग में अनिवार्य सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकेगा। ऐसी स्थिति में धर्म एवं नैतिकता का भी कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा। अतः यह मानना होगा कि आत्मा भोक्ता है, लेकिन आत्मा का भोक्ता होना बद्धात्मा या शरीर उधारी आत्मा के लिए ही समुचित है। अमुक्तात्मा भोक्ता नहीं है, वह तो मात्र साक्षीस्वरूप या दृष्टा होता है। आत्मा स्वदेह परिमाण है यद्यपि जैन विचारणा में आत्मा को रूप, रस, गन्ध, वर्ण, स्पर्श आदि से विवर्जित कहा गया है, तथापि आत्मा को शरीराकार स्वीकार किया गया है। आत्मा के आकार के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से दो दृष्टियाँ हैं- एक के अनुसार आत्मा विभु (सर्वव्यापी) है और दूसरी के अनुसार अणु है। सांख्य, न्याय और अद्वैत वेदान्त आत्मा को विभु मानते हैं और रामानुज अणु मानते हैं। जैन दर्शन इस सम्बन्ध में मध्यस्थ दृष्टि अपनाता है। उसके अनुसार, आत्मा अणु भी है और विभु भी है। वह सूक्ष्म है, तो इतना है कि एक आकाश-प्रदेश के अनन्तवें भाग में समा सकता है और विभु है, तो इतना है कि समग्र लोक को व्याप्त कर सकता है। जैन-दर्शन आत्मा में संकोच विस्तार को स्वीकार करता है और इस आधार पर आत्मा को स्वदेह-परिमाण मानता है। जैसे दीपक का प्रकाश छोटे कमरे में रहने पर छोटे कमरे को और बड़े कमरे में रहने पर बड़े कमरे को प्रकाशित करता है, वैसे ही आत्मा ही जिस देह में रहता है, उसे चैतन्याभिभूत कर देता है, किन्तु यह बात केवल संसारी आत्मा के सम्बन्ध में है। मुक्तात्मा का आकार अपने त्यक्त देह का दो तिहाई होता है (उत्तराध्ययन 36)। 62 जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान
SR No.006274
Book TitleJain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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