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(4) आत्मा अमूर्त है, अतः उसको उस रूप में तो नहीं जान सकते, जैसे घट, पट आदि वस्तुओं का इन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में ज्ञान होता है, लेकिन इतने मात्र से उनका निषेध नहीं किया सकता । जैन आचार्यों ने इसके लिए गुण और गुणी का तर्क दिया है । घट आदि जिन वस्तुओं को हम जानते हैं, उनका भी यथार्थ बोध- प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि हमें जिनका बोध या प्रत्यक्ष होता है, वह घट के रूपादि गुणों का प्रत्यक्ष हैं, लेकिन घट मात्र रूप नहीं है, वह तो अनेक गुणों का समूह है, जिन्हें हम पूर्णतः जानते, रूप (आकार) तो उनमें से एक गुण है। जब रूपगुण के प्रत्यक्षीकरण को घट का प्रत्यक्षीकरण मान लेते हैं और हमें कोई संशय नहीं होता, तो फिर ज्ञानगुण से आत्मा का प्रत्यक्ष क्यों नहीं मान लेते (विशेषावश्यक भाष्य 155.8)।
आधुनिक वैज्ञानिक भी अनेक तत्त्वों का वास्तविक बोध प्रत्यक्ष नहीं कर पाते हैं, जैसे ईथर, फिर भी कार्यों के आधार पर उनका अस्तित्व मानते हैं एवं स्वरूप-विवेचन भी करते हैं फिर आत्मा के कार्यों के आधार पर उसके अस्तित्व को क्यों न स्वीकार किया जाए? वस्तुतः आत्मा या चेतना के अस्तित्व का प्रश्न महत्त्वपूर्ण होते हुए भी विवाद का विषय नहीं है । भारतीय चिन्तकों में चार्वाक तथा पाश्चात्य चिन्तकों में ह्यूम, आदि जो विचारक आत्मा का निषेध करते हैं, वस्तुतः उनका निषेध आत्मा के अस्तित्व का निषेध नहीं, वरन् उसकी नित्यता का निषेध है । वे आत्मा को एक स्वतंत्र या नित्य द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन चेतन अवस्था या चेतना - प्रवाह के रूप में आत्मा का अस्तित्व तो उन्हें भी स्वीकार है । चार्वाक दर्शन भी यह नहीं कहता कि आत्मा का सर्वथा अभाव है, उसका निषेध मात्र आत्मा को स्वतन्त्र या मौलिक तत्त्व मानने से है । बुद्ध अनात्मवाद की प्रतिस्थापना में आत्मा (चेतना) का निषेध नहीं करते हैं वरन् उसकी नित्यता का निषेध करते हैं । ह्यूम भी अनुभूति से भिन्न किसी स्वतंत्र आत्मतत्त्व का ही निषेध करते हैं । ....... ‘न्यायवार्तिककार' का यह कहना समुचित जान पड़ता है कि आत्मा के अस्तित्व के विषय में दार्शनिकों में सामान्यतः कोई विवाद ही नहीं है, यदि विवाद है, तो उसका सम्बन्ध आत्मा के विशेष स्वरूप से है न कि उसके अस्तित्त्व से। स्वरूप की दृष्टि से कोई शरीर को ही आत्मा मानता है, कोई बुद्धि को, कोई इन्द्रिय या मन को, और कोई विज्ञान - संघात को आत्मा समझता है ! कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं, जो इन सबसे पृथक् स्वतन्त्र आत्म-तत्त्व के अस्तित्त्व को स्वीकार करते हैं न्यायवार्तिक पृ. 366 जैन दर्शन आत्मा को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार करता है।
जैन तत्त्वदर्शन
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